पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१०३

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सातवां परिच्छेद


उठी हुई छाती, काँपते हुए अधर और उज्ज्वल तथा नीरपूर्ण नेत्र देख, सत्यानन्द बड़े ही प्रसन्न हुए, बोले,-"तुम साध्वी हो, इसमें सन्देह नहीं, किन्तु बेटी! पत्नी केवल गृहधर्म में ही सहधर्मिणी मानी जाती है। वीरधर्म में रमणीको सहायता कैसी?"

शान्ति-"कौनसे महावीर बिना पत्निके ही वीर हो गये हैं? यदि सीता न होती तो राम थोड़े ही वीर हो सकते थे? बतलाइये तो सही, अर्जुनने कितने विवाह किये थे? भीममें जितना बल था, उनके उतनी ही पत्नियां भी थीं। कहाँतक कहूँ? आपको बतलानेकी जरूरत नहीं है।"

सत्या०-"ठीक है, पर कौन वीर अपनी स्त्रीको लेकर रणभूमिमें गया हैं?"

सत्या०-अर्जुन जिस समय यादवी सेनाके साथ आकाश मार्गसे युद्ध कर रहे थे, उस समय किसने उनका रथ चलाया था? द्रौपदी यदि साथ न रहती, तो पाण्डवगण कुरुक्षेत्रको लड़ाई में जूझने थोड़े ही जाते?"

सत्या०-"ठीक है; पर साधारण लोगोंके मन स्त्रियों को देखकर चंचल हो जाते हैं, जिससे वे काममें ढिलाई करने लगते हैं। इसीलिये सन्तानोंसे यह प्रतिज्ञा करायी जाती है कि वे किसी स्त्रोके साथ एक आसनपर न बैठे। जीवानन्द मेरा दाहिना हाथ है। तुम क्या मेरा दाहिना हाथ ही तोड़ने चली हो?"

शान्ति-"नहीं, मैं आपके दाहिने हाथका बल बढ़ाने आयी हूं। मैं ब्रह्मचारिणी हूं और प्रभुके पास ब्रह्मचारिणी ही बनकर रहूंगी। मैं केवल धर्माचरण करने आयी हूँ स्वामीके दर्शन करनेके लिये नहीं। मैं विरहकी ज्वालासे जल नहीं रही हूं। स्वामीने जो धर्म स्वीकार किया है, उसमें मेरा हिस्सा क्यों न होगा? यही सोचकर मैं चली आयी हूँ।"

सत्या०-“अच्छी बात है, मैं कुछ दिनोंतक परीक्षा लूंगा।"