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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/११८

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तीसरा परिच्छेद


साहब—केला बहुत उमडा चीज होटा है। इस वखट टुमारे पास है।"?

शान्ति—"ले जा अपनी बन्दूक! ऐसो जङ्गली जातिसे बातें करना भी बेवकूफी है!"

यह कह, बन्दूक फेंककर शांति हंसती हुई चली गयी।


तीसरा परिच्छेद।

शान्ति, साहबको वहीं छोड़कर हरिणीकी भांति उछलती कूदती जङ्गलके अन्दर न जाने कहां गायब हो गयी। थोड़ी देर बाद साहबको किसी स्त्रीके मधुरकण्ठसे निकला हुआ सुनाई दिया,—

"यह यौवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"

फिर न जाने कहांसे सारंगीकी सुरीलो तानमें भी यही गीत बज उठा—

"यह यौवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"

फिर उसी सुरमें सुर मिलाकर किसी पुरुषने भी गाया,—

"यह पौवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"

तीनों सुरो ने एक में मिलकर बनकी सारी लताओंको हिला डाला। शान्ति गाती हुई चली;—

"तह याैवन जल तरङ्ग कौन रोकि राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!
नदिया बिच नैया जाती है, अंधड़ पानी सह लेती हैं।
चतुर खिवैया डांड़ चलावे, नहि क्यों पार उतरि हौं?