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आनन्द मठ


हरे मुरारे! हरे मुरारे!
बांध टूटिगो बालू केरो, पूरन हुए मनोरथ मेरो,
गङ्गाधार ज्वार जब आयो, कौन रोकि तोहे राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे!"
सारंगीमें भी यही गीत बज रहा था—
"गंगाधार ज्वार जब आयो, कौन रोकि तोहे राखि हैं?
हरे मुरारे! हरे मुरारे।"

जहां घनघोर जङ्गल था, बाहर से देखने पर कहीं कुछ नहीं दिखाई देता था, शान्ति उसी ओर चली गयी। वहां शाखा-पल्लवों के बीच छिपा हुआ छोटासा झोंपड़ा था। उसके खम्भे वगैरह डालों के थे, छाजन पत्तों की, जमीन काठकी और गच मिट्टी की थी। लताद्वार को हटाकर शांति उसी झोपड़े के अन्दर घुसी। वहीं जीवानन्द बैठे हुए सारङ्गी वजा रहे थे।

शान्ति को देखकर जीवानन्द ने पूछा,—"इतने दिन बाद गङ्गा में ज्वार आया है क्या?"

शांति ने हंसकर उत्तर दिया,—"नदी नालों को डुबाकर गंगा में ज्वार आने पर भी कहीं पानी वेग से चलता है?"

जीवानन्द ने उदास होकर कहा,—"देखो शांति! एक दिन व्रतभङ्ग हो जाने के कारण मेरे प्राण तो न्यौछावर हो ही चुके हैं; क्योंकि पाप का प्रायश्चित्त तो करना ही होगा। अबतक तो मैं कभी का प्रायश्चित्त कर चुका होता; पर तुम्हारे ही अनुरोध से नहीं कर सका। पर अब देखता हूं कि बड़ी भारी लड़ाई शीघ्र ही छिड़ा चाहती है। उसी युद्धक्षेत्र में मुझे उस पापका प्रायश्चित्त करना होगा। इन प्राणों को निश्चय ही त्यागना पड़ेगा। मेरे करने के दिन—"

शांति ने उन्हें आगे और कुछ नहीं कहने दिया, झटपट बोल उठी,—"मैं तुम्हारी धर्मपत्नी, सहधर्मिणी और धर्मकी संगिनी हूं। तुमने बहुत बड़ा धर्म का काम अपने सिरपर उठाया है