पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२०

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चौथा परिच्छेद


उसी में तुम्हारी सहायता करनेके लिये मैं घर छोड़कर यहां आयी हूं। दोनों जने एक साथ मिलकर धर्मावरण करेंगे, यही सोचकर मैं घर छोड़ जंगलमें आ बसी हूं। मैं तुम्हारे धर्मको वृद्धि करूंगी। धर्म पत्नी होकर तुम्हारे धर्ममें विघ्न क्यों डालूंगी? विवाह लोक, परलोक, दोनोंके लिये किया जाता है। सोचकर देखो, मेरा तुम्हारा विवाह तो इस लोकके लिये हुआ ही नहीं, केवल परलोकके लिये हुआ हैं। परलोकमें हमें दूना फल मिलेगा। फिर प्रायश्चित्तकी बात कैसी? तुमने कौनसा पाप किया है? तुम्हारी प्रतिज्ञा यही थी, कि किसी स्त्रीके साथ एक आसनपर न बैठोगे। अब बतलाओ, कि तुम कहां और कब मेरे साथ एक आसनपर बैठे थे। फिर प्रायश्चित्त कैसा? हाय प्रभो! तुम मेरे गुरु हो, फिर मैं तुम्हें क्या धर्म सिखलाऊंगी। तुम वीर हो, तुम्हें मैं वीरव्रत क्या सिखलाऊंगी?"

आनन्दसे गद्गद हो, जीवानन्द ने कहा, "क्यों नहीं? अभी तो तुमने मुझे सिखलाया!"

शांति प्रफुल्लित चित्तसे कहने लगी,-"और देखो, प्रमो! हमारा विवाह इस लोकके लिये भी निष्फल कैसे हुआ? तुम मुझ प्यार करते हो ही, मैं तुम्हें जी से चाहती ही हूं, फिर इससे बढ़कर इस लोकमें और कौनसा फल चाहिये? बोलो, वन्देमातरम्।"

दोनों व्यक्ति एक स्वरले 'वन्देमातरम्' गाने लगे।




चौथा परिच्छेद।

एक दिन भवानन्द गोस्वामी नगरमें गये और चौड़ी सड़क छोड़कर अंधेरी गलीमें घुसे। गलीके दोनों तरफ ऊंचे ऊंचे मकान खड़े थे। सूर्य भगवान् दोपहर में भी एकाध बार ही इस