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आनन्द मठ


गलीके भीतर झांक लेते हैं, नहीं तो वहां बराबर अंधकारही अंधकार रहता है। उसी गलीके पासवाले एक दोतल्ले मकानमें भवानद ठाकुर घुस पड़े। नीचेके जिस घरमें एक अधेड़ स्त्री बैठी रसोई बना रही थी, वहीं जाकर भवानंद महाप्रभु उपस्थित हुए। स्त्री अधेड़, मोटी ताजी, काली, सफेद कपड़े पहने, माथेमें चंदन लगाये, सिरपर बालोंका जड़ा बांधे थी। हांडीके कोरमें भात चलानेसे कलछी ठक-ठक बोल रही थी। फर फर करके उसके सिरके बाल हवामें उड़ रहे थे, वह आर ही आप न जाने क्या बड़बड़ा रही थी और उसके चेहरेके चढ़ाव उतारके साथ साथ उसके बालोंका लहराना कुछ और शोभा देरहा था। इसी समय भवानन्द महाप्रभु उस घरमें घुस पड़े और बोले, “पण्डिताइनजी प्रणाम।" पण्डिताइनजी भवानन्दको देख कर जल्दी जल्दी अपने कपड़े सम्हालने लगीं। उनकी इच्छा थी कि सिरका सुहावना जूड़ा खोल डालें, पर जूठा हाथ होने के कारण वैसा न कर सकीं। एक तो उनके वे बाल स्वभावतः ही मुलायम थे, जिसपर पूजाके समयका उनमें मालसिरीका एक फल भटका रह गया था। उन्होंने कितना चाहा कि उसे आँचल से छिपा लें, पर आंचलमें वह छिप न सका, कारण वे सिर्फ पांच हाथकी साड़ी पहने हुई थीं। वह पांच हाथ की साड़ी उनकी मोटी तोंदको ही ढकने में प्रायः ख़तम हो गयी थी, तिसपर दुःसह भार-ग्रस्त हृदय-मण्डलकी भी उसे आबरू बचानी पड़ती थी। अन्ततो गत्वा कन्धेतक पहुंचते न पहुंचते ही साड़ीने जवाब दिया। कानके पास आकर चुपकेसे कहा कि बल, अब इसके आगे मुझसे नहीं जाया जायगा। लाचार लज्जा और संकोचवश गौरी ठकुराइनने आंचलको कानके पास लाकर हाथसे पकड़ रखा और आगेसे आठ हाथकी साड़ी पहननेकी मनही मन प्रतिज्ञा करते हुए कहा,-"कौन? गुसाई जी! आओ, आओ। मुझे प्रणाम क्यों करते हो भाई?"