पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१२४

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चौथा परिच्छेद


भवानन्दने पूछा,-"कल्याणी! कैसी हो? तुम्हारा शरीर तो अच्छा है न?"

कल्याणी-"आप क्या इस सवालका पूछना बन्द न करेंगे?

मेरा शरीर अच्छा रहनेसे न आपकी ही कुछ भलाई है, न मेरी।"

भवा०-"जो वृक्ष रोपता है, वह उसमें नित्य जल छोड़ा करता है। उस वृक्षको पनपते देखकर उसे सुख होता है। तुम्हारे मुर्दे शरीरमें मैंने जान डाली थी, इसीलिये पूछता रहता हूं कि वह जान ज्योंकी त्यों है या नहीं?"

कल्याणी-“कहीं विषका वृक्ष भी सूखता है?"

भवानन्द-"तो क्या जीवन विष है?"

कल्याणी-"नहीं तो मैं क्यों अमृत पीकर उसका नाश करने जाती?"

भवानन्द--"मैंने कई दफै सोचा, पर साहस न हुआ कि तुमले पूछूं कि किसने तुम्हारा जीवन विषमय कर दिया था।"

कल्याणी-"किसीने नहीं यह जीवन तो आपही विषमय है। मेरा जीवन विषमय है, आपका जीवन विषमय है, सारे संसारका जीवन विषमय है।"

भवा०-"ठीक है कल्याणी! मेरा जीवन सचमुच विषमय है। जिस दिनसे....... हाँ, तो तुम्हारा व्याकरण पढ़ना समाप्त हो गया?"

कल्याणी-"नहीं।"

भवा०-"और कोष?"

कल्याणी-“उसे पढ़नेमें तो जी नहीं लगता।"

भवा०-“पहले तो मैंने पढ़ने लिखने में तुम्हारा बड़ा उत्साह देखा था, अब ऐसी अश्रद्धा क्यों हो गयी?"

कल्याणी-“जब आपकेसे पण्डित भी महापापी होते हैं तब न लिखना पढ़ना ही अच्छा है। प्रभो! मेरे स्वामीका कुछ हाल ब तलाइये।"