लड़ाई जीतने के बाद सारे विजयी वीर, अजय नदीके किनारे चारों ओरसे सत्यानन्दको घेरे हुए, तरह तरहको खुशियां मनाने लगे। केवल सत्यानन्दको ही सुख नहीं था। वे भवानन्दके लिये दुःखी हो रहे थे।
अबतक तो वैष्णवोंके पास लड़ाईके अधिक बाजे नहीं थे, पर इस समय न जाने कहांसे हजारों ढोल, दमामे, शहनाई, भेरी, तुरही, सिंघे आदि बाजे आ पहुंचे। जय-सूचक वाद्योंकी ध्वनिसे सभी जङ्गल, नदियां और पहाड़गूज उठे। इस प्रकार बड़ी देरतक सन्तानोंने तरह तरहसे खुशियां मनायीं। इसके बाद सत्यानन्दने कहा-"आज जगदीश्वरने बड़ी कृपा की जो सनातनधर्मकी जय हुई; परन्तु अभी एक काम बाकी रह गया है। जो हमारे साथ खुशियाँ न मना सके और हमें यह खुशीका दिन दिखलानेके लिये जानोंपर खेल गये, उन्हें भूल जानेसे काम नहीं चलेगा। जिन्होंने रणक्षेत्रमें प्राण गंवाये हैं, चलो, हम उन लोगोंका शव-संस्कार कर। विशेषकर, जिस महात्माने हमें इस लड़ाई में जिताकर अपने प्राण दे दिये हैं, उस भवानंदका संस्कार खूब धूमधामसे करें।"
यह सुनते ही सन्तानोंका दल 'वन्देमातरम्' कहता हुआ मरे हुए वीरोंका संस्कार करने चला। सब लोग हरिनाम लेते हुए बहुत सी चन्दनकी लकड़ियाँ बटोर लाये और भवानन्दकी चिता रच उसीपर उन्हें सुला, आग लगाकर चारों ओरसे चिताको घेरे हुए 'हरे मुरारे' गाने लगे। ये लोग विष्णु-भक्त थे-वैष्णव- सम्प्रदाय-भक्त न थे, इसीलिये इनमें दाह कम होता था।
उसके बाद जंगलमें केवल सत्यानन्द, जीवानन्द, महेन्द्र, नवीनानन्द और धीरानन्द ही रह गये। पांचों व्यक्ति एकांतमें बैठे सलाह करने लगे।