पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/१६५

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तीसरा परिच्छेद

अब तो महेन्द्र बड़े चक्कर में पड़े, बोले-"क्यों? मैंने इनपर कब अविश्वास किया?"

नवीना०-"नहीं किया, तो फिर मेरे पीछे पीछे यहांतक क्यों चले आये?"

महेन्द्र-"मुझे कल्याणीसे एक बात करनी थी, इसीलिये चला आया।"

नवीना०-"अच्छा, तो अभी जाइये। अभी इनसे कुछ बातें कर लेने दीजिये। आपका तो यहीं घर-द्वार है, जब चाहेंगे चले आयेंगे। मैं तो आज बड़ी-बड़ी मुश्किलोंसे आने पाया हूं।"

महेन्द्र तो पूरे बुद्ध, बन गये। वे कुछ भी न समझ सके कि यह मामला क्या है? ऐसी बातें तो किसी अपराधीके मुंहसे नहीं निकल सकतीं। कल्याणीके भी रंग-ढंग निराले ही थे। वह भी अपराधिनीकी तरह न भागी, न डरी, न शर्मायी बल्कि धीरे-धीरे मुस्कुरा रही थी और वह कल्याणी जो उस दिन वृक्ष- तले बैठी हुई हंसते-हंसते विष खा गयी थी वह भला कभी अविश्वासिनी हो सकती है? महेन्द्र मन-ही-मन यही सब सोच ही रहे थे कि इसी समय शान्तिने महेन्द्रको यों बुद्धू बनते देख, धीरेसे हँसकर कल्याणी पर एक तिरछी चितवनका वार किया। सहसा अंधेरा मानो दूर हो गया। महेन्द्रने देखा कि यह चितवन तो मर्दकी नहीं, स्त्रोकी है! बड़ा साहस कर महेन्द्रने नवीनानन्दकी दाढ़ी पकड़के खींच ली। नकली दाढ़ी-मूछ एक ही झटकेमें नीचे गिर पड़ी। इसो समय अवसर पाकर कल्याणीने उसके बघछाले की गांठ खोल डाली। बघछाला भी नीचे गिर पड़ा। यों परदा खुलते देख, शान्ति सिर झुकाये खड़ी रह गयी।

तब महेन्द्रने शान्तिसे पूछा-“तुम कौन हो?"

शान्ति-"श्रीमान् नवीनानन्द गोस्वामी।"

महेन्द्र-“यह सब धप्पेबाजी है। तुम स्त्री हो।"