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आनन्द मठ


इस समय इस देशमें वह ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान सिखलानेवाले लोग भी नहीं हैं। हम लोग लोकशिक्षामें निरे अधकचरे हैं। इसलिये और और देशोंसे यह बाहरी ज्ञान लाना पड़ेगा। अंगरेज इस बाहरी ज्ञानमें बड़े प्रवीण हैं। वे लोकशिक्षामें पूरे पण्डित हैं। इसीले हमें अंगरेजोंको राजा मानना पड़ेगा। इस देशके लोग अंगरेजी शिक्षाद्वारा बाहरी तत्वों का ज्ञान प्राप्त कर अन्तस्तत्वोंको समझनके योग्य बनेंगे। उस समय सनातनधर्मका गर करने में कोई विघ्नबाधा न रह जायगी। उस समय सच्चा धर्म आप-से-आप जगमगा उठेगा। जबतक ऐसा नहीं होता, जबतक हिन्दू फिरसे ज्ञानवान, गुणवान और बलवान नहीं हो जाते, तबतक अङ्गरेजोंका राज्य अटल-अचल बना रहेगा। अंगरेजों के राज्यमें प्रजा सुखी होगी, सब लोग बेखटके अपने, अपने धर्मकी राहपर चलने पायेंगे। अतएव, हे बुद्धिमान! तुम अंगरेजोंके साथ युद्ध करनेसे हाथ खींच लो और मेरे साथ चलो।"

सत्यानन्दने कहा-"महात्मन्! यदि आप लोगोंको अंगरेजोको ही यहांका राजा बनाना था, यदि इस समय अंगरेजी राज्य स्थापित होने में ही इस देशको भलाई थी, तो फिर आपने मुझे इस हिंसापूर्ण युद्धकार्यमें क्यों लगा रखा था?”

महात्माने कहा-"अंगरेज इस समय बनिये होकर टिके हुए हैं। केवल माल बेचने और टके पैदा करनेमें लगे हुए हैं। राज्य-शासनका झंझट सिरपर लेना नहीं चाहते। सन्तान-विद्रोहके कारण वे लोग मजबूत होकर राज्यशासन अपने हाथमें लेंगे; क्योंकि बिना राज्यशासनका प्रबन्ध ठीक धनसंग्रह नहीं होने पाता। अंगरेजोंका राज्य स्थापित करनेहीके लिये यह संतानविद्रोह हुआ है। अब आओ, ज्ञानलाभ करनेपर तुम आप ही सब बातें समझ जाओगे।"

सत्यानन्द-"मुझ शानलाभकी लालसा नहीं। ज्ञानसे मुझे कोई मतलब नहीं है। मैंने जो व्रत ग्रहण किया है, उसीका