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आनन्द मठ


पालन करूंगा। आशीर्वाद करें कि मेरी मातृभक्ति अचल हो।"

महात्मा-"व्रत तो सफल हो गया। तुमने माताका मंगल साधन कर डाला। अंगरेजी राज्य स्थापित करनेमें मदद पहुंचा ही दी। अब युद्ध-विग्रहकी बात छोड़ो। लोगोंको खेतीबारी करने दो, जिससे लोगोंके भाग्यके दरवाजे खुल जायं।"

सत्यानन्दकी आँखोंसे चिनगारियां निकलने लगीं। उन्होंने कहा मैं तो शत्रुओंके रुधिरसे सींच-सींचकर माताको शल्यशालिनी बनाऊंगा।"

महात्मा-“शत्रु कौन हैं? शत्रु अब रहे कहाँ? अंगरेज मित्र राजा है। अंगरेजोंके साथ युद्ध करने योग्य शक्ति भी नहीं है।"

सत्यानन्द-न सही, मैं यहीं, इसी मातृप्रतिमाके सम्मुख प्राण-त्याग करूंगा।"

महापुरुष–“योंही अज्ञानमें पड़कर? चलो, चलकर ज्ञान लाभ करो। हिमालयके शिखरपर मातृमन्दिर है, वहींसे मैं तुम्हें माताकी मूर्तिका दर्शन कराऊंगा।"

यह कह, महापुरुषने सत्यानन्दका हाथ पकड़ लिया। अहा! कैसो अपूर्व शोभा थी। उस गम्भीर विष्णुमन्दिरमें, विराट चतुर्भुजी मूर्ति के सामने, धुधले प्रकाशमें खड़े वे दोनों महा प्रतिभापूर्ण पुरुष एक दूसरेका हाथ पकड़े खड़े हैं। किसने किसे पकड़ रखा है। मानों ज्ञानने आकर भक्तिको पकड़ लिया है, धर्मने आकर कर्मका हाथ थाम लिया है, विसर्जनने आकर प्रतिष्ठाको पकड़ रखा है, कल्याणीने शान्तिको आ पकड़ा है। यह सत्यानन्द शान्ति हैं और वह महापुरुष कल्याणी हैं। सत्यानन्द प्रतिष्ठा है, महापुरुष कल्याणी हैं। विसर्जन आकर प्रतिष्ठाको ले गया।

*इति शम्*