प्राग्भाषण
स्वर्गीय बङ्किमचन्द्रका नाम बंगालके आबाल-वृद्ध-वनिता सभी जानते हैं। उनके उपन्यास वहां सभी श्रेणी और सभी अवस्थाके लोगोंके प्रिय हैं। उनके समान प्रतिभाशाली औपन्यासिक भारतके किसी प्रान्तमें पैदा नहीं हुआ। उनका एक-एक उपन्यास बहुमूल्य रत्नके समान है। हिन्दीमें भी उनके उपन्यासोंके अनुवाद हो चुके हैं और हिन्दी पढ़ने वालों में उनकी पुस्तकों का कैसा प्रचार है, वह इसी से समझ लीजिये कि उनकी एक-एक पुस्तक के भिन्न-भिन्न अनुवाद भिन्न-भिन्न स्थानों से निकल कर बराबर बाजार में बिकते रहते हैं।
यों तो उनके सभी उपन्यास प्रशंसनीय, पठनीय और सुविख्यात हैं, तथापि जबसे लार्ड कर्जनने १९०५ ई॰ में बंगाल के दो टुकड़े किये, तब से 'आनन्दमठ' का नाम सर्वापेक्षा प्रसिद्ध हो गया है। जो 'वन्देमातरम्' मन्त्र इस समय सारे देश की जबान पर हर जगह हर घड़ी मौजूद रहता है, जिस 'वन्देमातरम्' गानको हम अपना राष्ट्रीय गान मानते हैं, जिस 'वन्देमातरम्' ध्वनि को मुंह से निकालने के अपराध पर ही बंगाल के दो टुकड़े किये जाने से दुखित बंगालियों को पुलिस और न्यायालयों से बड़े-बड़े दण्ड दिये गये, वह मन्त्र और गान इस पुस्तक में दिया हुआ है। इसी ग्रन्थ में पहले पहल भारतीय राष्ट्रको जन्मभूमि में मातृभाव रखना सिखलाया गया था और कविके मुखसे निकले हुए इस दिव्यादेशकी अभिव्यक्तिका अवसर प्रदान करने ही के लिये मानों बंगालके टुकड़े किये गये और बंगालियों ने इस आदेशको सारे देशमें फैला दिया। इस समय बङ्किम केवल बंगाल की ही सम्पत्ति नहीं;