पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/५२

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बारहवां परिच्छेद

आती हैं। जहां अधिक प्रेम होता है, वहां आशंका भी अधिक होती है। महेन्द्रने पहले नहीं देखा था, कि विषकी गोली कितनी बड़ी थी। यह प्रश्न सुन, उसे अच्छी तरह देख भालकर बोले,—"हां, मालूम होता है, कि बहुतसा खा गयी है।"

कल्याणीको भी सहज ही इस बातका विश्वास हो गया। वह भी बड़ी देरतक विषकी गोलीको देखती रही। थूकके साथ विषका कुछ अंश पेटमें चला गया था, अतएव विषके प्रभावसे वह बेहोश होने लगो। वह छटपटाने लगी और रोती रोती एक-दम बेसुध हो गयी। तब कल्याणीने स्वामीसे कहा,—"अब क्या देखते हो? सुकुमारोको देवताओंने बुला लिया। वह जिस राहपर गयी है, मुझे उस रोहपर जाना है।" यह कह, कल्याणी उस विषकी गोलीको मुंहमें डालकर तुरत ही निगल गयी।

महेन्द्र रो पड़े बोले,—"हाय! कल्याणी! तुमने यह क्या कर डाला?"

कल्याणीने कुछ उत्तर न दिया, स्वामीके पैरोंको धूल माथे चढ़ाकर बोलो,—"स्वामी,अब बातें करना व्यर्थ है, मैं तो चली।"

"हाय! कल्याणी! यह तुमने क्या कर डाला।" यह कहकर महेन्द्र जार जार रोने लगे। कल्याणीने बड़े ही धीमे स्वरमें कहा,—"मैंने जो कुछ किया है, अच्छा हो किया है। नारीके कारण तुम्हें देवताके कार्यसे विमुख होना पड़ता। मैंने देवताकी बात टाल देनी चाही थी, इससे मेरी लड़कीके प्राण गये। अधिक अवज्ञा करती,तो कदाचित् तुम्हींको खोना पड़ता।"

महेन्द्रने रोते हुए कहा,—"मैं तुम्हें कहीं रख आता। जब हमलोगोंका कार्य सिद्ध हो जाता, तब फिर तुम्हें लेकर सुखसे जीवन बिताता। कल्याणी! तुम्हारे ही दमतक तो मेरा इस दुनियांसे नाता था। तुमने आज यह क्या कर डाला? जिस हाथके बलपर मैं तलवार पकड़ता वही हाथ तुमने आज काट डाला। तुम्हारे बिना अब मैं व्यर्थ हूं।"