पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४९
बारहवां परिच्छेद


हालतमें सुना मानों उसी बैकुण्ठमें उसी बंसीकी सुरीली तानमें कोई गा रहा है:-

{{Block center|

“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!
गोपाल! गोविन्द! मुकुन्द! शौरे!"

कल्याणी भी उसी बेहोशोकी हालतमें अपने सुमधुर कण्ठले पुकार उठी,"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!” उसने महेन्द्रसे कहा,-"बोलो--हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

जङ्गलसे आते हुए उस मधुर स्वर तथा कल्याणीके मुंहसे निकले हुए मधुर स्वरसे विमुग्ध हो, ईश्वरकी सहायतामें विश्वास कर, कातरचित्त महेन्द्र भी कह उठे,

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

फिर तो चारों ओरसे यही ध्वनि उठने लगी-"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!" मानों पेड़ों पर बैठे पक्षो भी कहने लगे:-

“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!”

नदीके कल कल नादसे भी मानों यही ध्वनि निकलने लगी,

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

उस समय महेन्द्र अपना सारा शोक सन्ताप भूल गये। पागलोंकी तरह कल्याणीके सुरमें सुर मिलाकर कहने लगे,-

“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

जङ्गलके भीतरसे भी मानों उन्हींकी तानमें तान मिलाकर कोई कह रहा था:-

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

क्रमशः कल्याणीका कण्ठ-स्वर धीमा पड़ने लगा। तोभी वह कह रही थी,

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

धीरे धोरे कण्ठ बन्द हो गया। कल्याणीके मुंहसे आवाज नहीं निकलती। उसको आंखें बन्द हो गयीं, देह ठंढी पड़ गयी। महेन्द्र समझ गये, कि कल्याणी “हरे! मुरारे!” रटती