पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०
आनन्द मठ


रटती बैकुण्ठ धामको चली गयी। तब पागलोंकी तरह ऊंचे स्वरसे काननको कम्पित करते और पशु पक्षियोंको डराते हुए महेन्द्र पुकारने लगे,-

“हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

उसी समय न जाने किसने वहां जाकर उन्हें अपनी छातीसे लगा लिया और उनके गले में गला मिलाकर पुकारने लगा,

"हरे! मुरारे! मधुकैटभारे!"

फिर तो दोनों व्यक्ति उसी अनन्तकी महिमासे, उस अनन्त अरण्यमें, उस अनन्त पथगामिनीके शरीरके सामने बैठे हुएअनन्त भगवानका नाम ले लेकर पुकारने लगे। पशु पक्षी चुप हैं, पृथ्वी शोभामयी हो रही है। वह स्थान और समय इस परम सङ्गीत के लिये पूर्ण रूपसे उपयुक्त था, सत्यानन्द महेन्द्रको गोदमें लेकर बैठ गये।



तेरहवां परिच्छेद।

इधर राजधानीके हर गलीकूचेमें हलचलसी मच गयी। खबर फैल गयी कि जो सरकारी खजाना कलकत्ते को चालान किया गया था, उसे संन्यासियोंने लूट लिया। संन्यासियोंको पकड़नेके लिये बहुतसे सिपाही और भाला-बरदार छोड़े गये इन दिनों अकालके मारे उस दुर्भिक्षपीड़ित प्रदेशमें सच्चे संन्यासी बहुत ही कम रह गये थे, क्योंकि संन्यासी भीख मांग कर खानेवाले ठहरे, पर यहां जब गृहस्थोंको ही खाना नसीब नहीं होता था, तब संन्यासियोंको भीख कौन देता? इसलिये जो लोग सच्चे संन्यासी थे, वे पेटकी मारसे काशी, प्रयाग आदि स्थानोंमें चले गये। हां, जो लोग अपनेको 'सन्तान' कहते थे, वे ही कमी तो संन्यासीका वेश धार कर लेते थे और कभी