सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५१
तेरहवां परिच्छेद


इच्छा होनेपर उसे उतार फेंकते थे। अब जब संन्यासियोंकी धर पकड़ होने लगी, तब सबोंने संन्यासोका बाना उतार फेंका। लालचके पुतले सरकारी नौकर, कहीं संन्यासियोंकी सूरत न देख, केवल गृहस्थोंके ही बर्तन भांडे फोड़कर सन्तोष करने लगे। केवल सत्यानन्द गेरुआ वसन किसी समय नहीं त्यागते थे।

उसी कृष्ण कल्लोलिनी क्षुद्र नदीके तौरपर रास्तेके किनारे एक पेड़के नीचे कल्याणी पड़ी है, महेन्द्र और सत्यानन्द एक दूसरेको आलिङ्गन किये, डबडवायी आंखोंसे ईश्वरकी गुहार कर रहे हैं, ऐसे समय नजीरुद्दीन जमादार सिपाहियोंके साथ वहां आ पहुंचा और सत्यानन्दका गला पकड़कर बोला, “यही साला संन्यासी है।"

दूसरे सिपाहीने इसी तरह महेन्द्रको भी पकड़ लिया। क्योंकि उसने सोचा, कि जब यह संन्यासीके साथ है, तब जरूर यह भी संन्यासी ही होगा। तीसरा घासपर पड़ी हुई कल्याणी को भी पकड़ने चला, पर यह देखकर लौट आया कि यह तो औरतकी लाश है। इसी विचारसे उन्होंने लड़कीको भी छोड़ दिया। वे लोग बिना कुछ कह सुने चुपचाप सत्यानन्द और महेन्द्रको बांधकर ले चले। कल्याणीकी लाश और नन्हीं सी लड़की बिना किसी रक्षकके वहीं पेड़के तले पड़ी रह गयी।

पहले तो शोक और प्रेमसे उन्मत्त होनेके कारण महेन्द्रको कुछ सुधबुध न थी। इसीलिये कहाँ क्या हो रहा है और क्या हो गया है, यह उनकी समझ में नहीं आया। उन्होंने सिपाहियों को बांधनेमें बाधा नहीं डाली, पर दो ही चार पग चलनेपर उनकी समझमें आ गया, कि ये तो हमें बाँधेलिये जा रहे हैं। कल्याणीकी लाश अभीतक बिना जली पड़ी थी और नन्हीं सी लड़की भी वहीं पड़ी रह गयी थी। सम्भव है कि उसे कोई खूंखार जानवर खा डाले। यह बात