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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/५७

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आनन्द मठ


मनमें आते ही उन्होंने बड़े जोरसे दोनों हाथोंका बंधन तोड़ डाला, और पलक मारते ही एक जमादारको इस जोरसे लात मारी कि, वह धड़ामसे भूमिपर गिर पड़ा। वे एक और सिपाहीपर हमला करने जा रहे थे, कि बाकी तीन सिपाहियों ने उन्हें घेरकर काबूमें कर लिया और उनके हाथ पैर बांध दिये। दुःखसे कातर हो, महेन्द्रने ब्रह्मचारी सत्यानन्दसे कहा,

"आप थोड़ीसी सहायता करते तो मैं इन पांचोंको यमपुरीका रास्ता दिखा देता।" इसपर सत्यान्दने कहा,-"मेरी इन पुरानी हड्डियोंमें जोर ही कितना है? मैं जिन्हें गुहरा रहा था, उनके सिवाय मुझे और किसीका भरोसा नहीं है। जो होनहार है, उसके विरुद्ध चेष्टा न करो। हम दो आदमी इन पांचोंको परास्त नहीं कर सकते। चलो देखें ये हमें कहाँ ले जाते हैं। भगवान सब तरहसे भला ही करेंगे।"

दोनोंने फिर अपने छुटकारेकी कोई चेष्टा नहीं की और सिपाहियोंके पोछे पीछे जाने लगे। कुछ दूर चलनेपर सत्यानन्दने सिपाहियों से कहा, "भाई, मैं सदा हरिनान जपा करता हूं, क्या यह कोई जुर्म है?” जमादारको सत्यानन्द भलेमानससे मालूम पड़े। उसने कहा, "नहीं; तुम हरिनामका सुमिरन करो। हमलोग तुम्हें नहीं रोकते। तुम बूढ़े ब्रह्मचारी हो। तो शायद रिहाई भी पा जाओगे; पर इस शैतानको तो फाँसीका हुक्म हुए बिना नहीं रहता।"

यह सुन, ब्रह्मचारी मीठे स्वरमें गाने लगे;-

"धीर समोरे तटिनी तीरे वसति वने वर नारी।
मा कुरु धनुर्द्धर गमन विलम्बन मति विधुरा सुकुमारी ॥"

शहरमें आनेपर दोनों व्यक्ति कोतवालके सामने हाजिर किये गये। कोतवालने राजदरबारमें इत्तिला भेजकर महेन्द्र और ब्रह्मचारीको हवालात में भेज दिया। वह कारागार बड़ाही भयानक तुम