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आनन्द मठ


पकड़े लिये जा रहे हैं और प्रभु गीत गाते हुए चले जा रहे हैं।

जीवानन्द महाप्रभु सत्यानन्दके सब इशारे समझते थे। इसीसे उनके मुंहसे यह गाना सुनकर कि:-

"धीर समीरे तटिनी तीरे वसति बने वर नारी।"

उन्होंने सोचा कि कहीं नदीके तीरपर कोई दूसरी औरत तो भूखी प्यासी नहीं पड़ी हुई है? यही सोचते विचारते जीवानन्द नदीके किनारे किनारे चले। जीवानन्दने यह देख लिया था, कि ब्रह्मचारीजीको मुसलमान बांधे लिये चले जा रहे हैं उन्होंने पहले तो उन्हें छुड़ानेका विचार किया; फिर सोचा कि इस संकेतका अर्थ तो कुछ और ही है। उनकी जीवन-रक्षा करनेकी अपेक्षा उनकी आज्ञाका पालन करना ही वे सदासे सिखलाते आये हैं। यह सोच जीवानन्दने उनकी आज्ञाका पालन करना उचित समझा।

यही सोचकर जीवानन्द नदीके किनारे किनारे चलने लगे। जाते जाते उन्होंने नदीके किनारे एक वृक्षके नीचे पहुंचकर देखा, कि एक मरी हुई स्त्री और एक जीती जागती लड़की पड़ी है। जीवानन्दने महेन्द्रकी स्त्री कन्याको पहले कभी नहीं देखा था। उन्होंने सोचा, सम्भव है, यही महेन्द्रकी स्त्री कन्या हों; क्योंकि प्रभुके साथ महेन्द्र भो दिखलाई दिये थे। जो हो, माँ तो मरी हुई मालूम पड़ती है, पर लड़की जीती थी। पहले इसकी जान बचानी चाहिये, जिसमें बाघ भालू इसे न खा जाय। भवानन्दजी पास ही कहीं होंगे; इस लाशको जला देंगे। यह सोचकर जीवानन्द उस लड़कीको गोदमें लेकर चल पड़े।

लड़कीको गोदमें लिये हुए जीवानन्द उस घने जंगलके भीतर घुस गये। जंगल पारकर वे एक छोटे गाँवमें पहुँचे। गाँवका नाम भैरवीपुर था; पर लोग उसे 'भाईपुर' कहा करते थे। उस गाँवमें थोड़ेसे मामूली हैसियतके आदमी रहते थे। उसके