सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८
आनन्द मठ


घरके अन्दर आते हो जीवानन्द सामने रखे हुए एक चर्खेको उठाकर चलाने लगे। उस नन्ही बालिकाने कभी चर्खेका शब्द नहीं सुना था। जबसे मांसे बिछुड़ी, वह रो रही थी, चर्खेका घर्र घर्र शब्द सुन वह डर गयी तथा और जोरसे रोने लग गयी। उसका रोना सुनकर घरके अन्दरसे एक सत्रह अठारह वर्षकी युवती बाहर निकली। उसने अपने दाहिने गालपर दाहिने हाथ की उंगली रखे, गरदन तिरछी कर कहा,-"ऐ! यह क्या! भैया! चरखा क्यों चला रहे हो? यह लड़की कहांसे ले आये हो? क्या यह तुम्हारी लड़की है? फिर व्याह किया है क्या?"

लड़कीको उस युवतीकी गोदमें देते हुए जीवानन्दने उसे एक हलकी सी चपत मारनेके लिये हाथ उठाते हुए कहा, “पगली कहीं की! मेरे लड़की कहांसे आयी? मुझे भी क्या तूने ऐसा वैसा समझ रखा है? घरमें दूध, कि नहीं?"

युवती-“दूध क्यों नहीं है? पीओगे क्या?"

जीवानन्द-"हां, पीऊंगा।"

यह सुन, वह युवती जल्दी जल्दी दूध गरम करने चली गयी। इधर जीवानन्द चरखा चलाते रहे। उस युवतीकी गोदमें जातेहो वह लड़की न जाने क्यों चुप हो गयी। शायद उसे फूले हुए कुसुमको तरह सुन्दरी देखकर उसने उसे अपनी मां ही समझ लिया था। अबतक तो वह चुप थी; पर चूल्हेकी आंच देहमें लगते ही रो उठी। उसका रोना सुन जीवानन्द बोले,-"अरी ओ मुहजली निमी बंदरी! क्या तेरा दूध अबतक गरम नहीं हुआ?" निमी बोला,-"हो गया।" यह कह वह एक पत्थरके बर्तन में दूध लिये हुई जीवानन्दके पास आयी। जीवानन्दने बनावटी क्रोध दिखलाते हुए कहा,-"जीमें तो आता है कि यह दूध तेरे ऊपर फेंक दूं। तू क्या समझती थी, कि दूध मैं पीऊंगा?"