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आनन्द मठ


यह सुन, लड़कीको गोदमें लिये निमी रसोई घरमें चली गयी। पीढ़ा, पानी रख उसने जीवानन्दको खानेके लिये बैठाया और जुहीके फूलकी तरह स्वच्छ चावलोंका भात, खड़ी मसूरकी दाल, जंगली गूलरकी तरकारी, रोहू मछलीका शोरबा, और दूध परोस दिया। पीढ़ेपर बैठते ही जीवानन्दने कहा,-“बहन, कौन कहता है कि बड़ा भारी अकाल पड़ा है? तेरे गांव में तो मालूम पड़ता है कि अकालकी दाल ही नहीं गलने पायी।"

निमीने कहा,-"अकाल तो खूब ही व्याप कर रहा है, भैया! पर हम दो ही जने खानेवाले ठहरे, इसीलिये घरमें जो कुछ है, वही आप भी खाते हैं और औरोंको भी खिलाते हैं। तुम्हें याद होगा, हमारे गांवमें वर्षा हुई थी। तुमने कहा भी था, कि जङ्गलमें वर्षा बहुत होती है। इसीसे हमारे यहां कुछ कुछ धानकी फसल हुई थी। और लोगोंने तो अपना धान बेच दिया था, पर हमने नहीं बेचा था।"

जीवानन्दने कहा,-"बहनोई महाशय कहां गये हैं?"

निमीने सिर नीचाकर धारेसे कहा,--"दो तीन सेर चावल लेकर न जाने कहां गये हैं। शायद किसीको देने गये हैं।"

इधर बहुत दिनोंसे जीवानन्दको ऐसा बढ़िया भोजन नसीब नहीं हुआ था। इसलिये बकवादमें बहुत समय नष्ट करना अच्छा न समझकर वे गपागप अन्नव्यञ्जनको गलेके नीचे उतारने लगे। थोड़ी ही देर में वे सारी थाली साफ कर गये। श्रीमती निमाईमणिने आज केवल अपने और स्वामीके लिये ही रसोई पकायी थी और अपना हिस्सा लाकर भाईको खानेके लिये दिया था।

थाली खाली देख, वह उदास मन रसोई घरमें गयी और अपने स्वामीका हिस्सा भी लाकर जीवानन्द के आगे रख दिया। जीवानन्दने बिना किसी आपत्तिके वह सारा सामान भी पेटके अन्दर डाल दिया। तब निमाईमणि ने पूछा-"क्यों भैया! और कुछ खाओगे?"