पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/९१

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तीसरा परिच्छेद


स्त्रीको औषधके बलसे पुनर्जीवित किया है, वह महेन्द्रकी ही स्त्री कल्याणी है, किन्तु इस समय उन्होंने कोई बात कहनी आवश्यक नहीं समझी।

जीवानन्दने कहा-“महेन्द्रकी स्त्री कैसे मरी?"

सत्या०—“जहर खाकर।"

जीवा०-"उसने जहर क्यों खाया?"

सत्या०–“भगवानने उसे प्राण-त्याग करनेके लिये सपने में आज्ञा दी थी।"

जीवा०—“वह स्वप्नादेश क्या सन्तानोंके कार्योद्धारके ही निमित्त हुआ था?

सत्या०-“महेन्द्रसे तो मैंने ऐसा ही कुछ सुना था। अच्छा, अब सायङ्काल हो चला है। मैं सन्ध्या-पूजा करने जाता हूं। उसके बाद नूतन सन्तानोंको दीक्षित किया जायगा।"

भवा०-“क्या बहुतसे नये सन्तान दीक्षा लेनेवाले हैं? क्या महेन्द्र के सिवा और कोई आदमी शिष्य होना चाहता है?"

"हाँ, एक और नया आदमी है। पहले तो मैंने उसे कभी नहीं देखा था। आज ही वह मेरे पास आया है। वह बड़ा ही नवजवान और सुन्दर पुरुष है। मैं उसकी चालढाल और बात चीतसे बड़ाही प्रसन्न हुआ। वह एकदम खरा सोना मालूम पड़ता है। उसे संतानोंका कर्त्तव्य सिखलानेका भार जीवानन्दको दिया जाता है। इसका कारण यह है कि जीवानंद लोगोंका मन मोह लेने में बड़ा चतुर है। मैं चलता हूं, तुम लोगोंसे सिर्फ एक बात और कहनेको रह गयी है। दत्तचित्त होकर उसेमी सुन लो।"

दोनोंने हाथ जोड़े हुए कहा-"जो आज्ञा।"

सत्यानन्दने कहा-"यदि तुम दोनोंमसे कोई अपराध बन आया हो अथवा मेरे लौट आनेके पहले कोई नया अपराध बन पड़े, तो उसके लिये मेरे आये बिना प्रायश्चित्त न करना। मेरे आनेपर प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा।"