पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८८
आनन्द मठ


यह कह, सत्यानन्द अपने स्थानको चले गये। भवानन्द और जीवानन्द परस्पर एक दूसरेका मुंह देखने लगे।

भवानन्दने कहा-"यह बात कहीं तुम्हारे ही ऊपर डालकर तो नहीं कही गयी है?"

जीवा०-"हो सकता है, क्योंकि मैं महेंद्र की कन्याको रख आनेके लिये बहनके घर चला गया था।"

भवा०-"इसमें भला कौनसा अपराध हुआ? वह तो कोई निषिद्ध कार्य नहीं है। कहीं अपनी स्त्रीसे भी तो नहीं मिल आये हो?"

जीवा०-"शायद गुरुजीको यही संदेह हुआ है।"




चौथा परिच्छेद

संध्या पूजा समाप्त कर सत्यान दने महेंद्रको बुलाकर कहा-"तुम्हारी स्त्री और कन्या जीवित हैं।"

महेंद्र-"कहां हैं, महाराज?"

सत्या०-"तुम मुझे महाराज क्यों कहते हो?"

महेंद्र-"सभी कहते हैं, इसीलिये मैं भी कहता हूं। मठके अधिकारी राजा कहलाते ही हैं। महाराज, मेरी कहां कहां है?"

सत्या-"इसका जवाब पानेके पहिले एक बातका ठीक-ठीक जवाब दो। क्या तुम संतानधर्म ग्रहण करना चाहते हो?

महेंद्र-"हाँ, पक्का इरादा कर चुका हूं।"

सत्या०-"तब यह न पूछो कि तुम्हारी स्त्री कन्या कहाँ हैं।

महेंद्र-"क्यों महाराज?"

सत्या०-"जो मनुष्य यह व्रत ग्रहण करता है, उसे स्त्री,