पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९०
आनन्द मठ


समय चले आते हैं और लूट के मालमें हिस्सा इनाम पाकर चले जाते हैं। जो दीक्षित हैं, वे सब कुछ छोड़े बैठे हैं। वे हो इस संप्रदायके कर्ता-धर्ता हैं। मैं तुम्हें अदीक्षित संतान नहीं बनाना चाहता; क्योंकि लड़ने-भिड़नेके लिये भाले-बर्छी और लाठी सोटेवाले तो बहुतसे हैं। दीक्षित हुए बिना तुम सम्प्रदायका कोई गुरुतर कार्य न कर सकोगे।"

महेंद्र-दीक्षा कैसी? मैं दीक्षा क्यों लूं? मैं तो पहले ही मंत्र ले चुका हूं।"

सत्या०-"वह मंत्र छोड़कर मुझसे फिर दूसरा मंत्र लेना होगा।"

महेंद्र--"वह मंत्र कैसे त्याग कर सकता हूं?"

सत्या०-"उसकी विधि मैं तुम्हें बतला दूंगा।"

महेन्द्र-नया मन्त्र क्यों लेना पड़ेगा?"

सत्या०-"संतान लोग वैष्णव हैं।"

महेंद्र-“यह तो मेरी समझमें नहीं आता। ये संतान लोग कैसे वैष्णव हैं? वैष्णवों के लिये तो अहिंसा ही बड़ा भारी सत्या अहिंसावाले चैतन्यदेवके अनुयायी वैष्णव हैं। नास्तिक बौद्धधर्मके अनुकरणपर जो अप्राकृतिक वैष्णवधर्म उत्पन्न हुआ था, यह उलीका लक्षण है; परन्तु सच्चे वैष्णवधर्मका लक्षण दुष्टोंका दमन और धरित्रीका उद्धार है, क्योंकि विष्णु ही संसारके पालनकर्ता हैं। उन्होंने दस बार शरीर धारणकर पृथ्वीका उद्धार किया है। केशी, हिरण्यकशिपु, मधुकैटभ, मुर, नरक आदि दैत्यों, रावणादि राक्षसों और कंस तथा शिशुपाल आदि राजाओंको उन्होंने ही युद्ध में मार गिराया था। वे हो जेता, जयदाता, पृथ्वीके उद्धरकर्ता और सन्तानोंके इष्ट देवता हैं। चैतन्यदेवका वैष्णवधर्म तो अधूरा है। वह सच्चा वैष्णवधर्म नहीं है। चैतन्यदेवके विष्णु प्रेममय हैं, किन्तु भगवान केवल प्रेममय ही नहीं अनन्त शक्तिमय भी हैं। धर्म है।”