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पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/९५

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चौथा परिच्छेद


चैतन्यके विष्णु केवल प्रेममय हैं सन्तानोंके विष्णु केवल शक्तिमय हैं। हम दोनों ही वैष्णव हैं, पर साधे ही वैष्णव हैं। बात समझमें आयी कि नहीं?"

महेन्द्र-“नहीं, यह तो बिलकुल नयी बातें मालूम पड़ती कासिमबाजारमें एक बार एक पादरी मिला था। वह भी कुछ ऐसी ही बातें कहता था। कहता था कि ईश्वर प्रेममय हैं, तुम लोग ईसामसीहको प्यार करो। आपकी बातें भी उसी कीसी मालुम पड़ती हैं।"

सत्या-"जैसी बातें हमारे बाप-दादे कहते चले आये हैं, वैसी ही बातें तो मैं कह रहा हूं। तुमने यह सुना है या नहीं कि ईश्वर त्रिगुणात्मक है?"

महेन्द्र-"हां, सुना है। सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण है।"

सत्या०—“बहुत ठीक। इन तीनों गुणोंकी अलग-अलग उपासना होती है। सत्त्वगुणसे उनकी दया, दाक्षिण्य आदिकी उत्पत्ति होती है। उसकी उपासना भक्तिद्वारा करनी चाहिये। चैतन्यका सम्प्रदाय यही करता है। रजोगुणसे उनकी शक्ति उत्पन्न होती है। इसकी उपासना युद्धद्वारा की जाती है, देवताके शत्रुओंको मारकर की जाती है। हम लोग ऐसा ही करते हैं। और तमोगुणसे भगवान्ने शरीर धारण कर, चतुर्भुज आदि रूप इच्छानुसार धारण किये हैं। माला, चन्दन आदि उपहारोंके द्वारा इस गुणकी पूजा की जाती है। सर्वसाधारण ऐसा ही करते हैं। अब समझे या नहीं?"

महेंद्र-“समझा। तब तो सन्तानगण भी एक प्रकारके उपासक ही हैं।"

सत्या०-“अवश्य। हम लोग राज्य नहीं चाहते, पर चूँकि ये मुसलमान भगवान्से द्वेष करते हैं, इसीलिये हम उनको निर्मूल कर डालना चाहते हैं।"