बातचीत समाप्त कर, सत्यानन्दने महेन्द्रको लेकर मठके भीतरवाले मदिरमें, जहां वह शोभामयी प्रकाण्ड चतुर्भुज मूर्ति विराजती थी, प्रवेश किया। उस समय वहांकी शोभा बड़ी ही विचित्र थी। सोने, चांदी और रत्नोंसे जगमगाते हुए प्रदीप मन्दिरको आलोकित कर रहे थे। ढेरके ढेरे फूल शोभायमान होते हुए मन्दिरमें सुगन्ध फैला रहे थे। एक आदमी वहां बैठा हुआ धोरे धीरे “हरे मुरारे" कह रहा था। सत्यानन्दके भीतर घुसते ही उसने उठकर उन्हें प्रणाम किया। ब्रह्मचारीने पूछा-“तुम दीक्षित होना चाहते हो?"
उसने कहा, "मेरे ऊपर दया कीजिये।"
यह सुन, उसे और महेन्द्रको सम्बोधन कर सत्यानन्दने कहा-"तुम लोगोंने यथाविधि स्नान कर लिया है न? अच्छी तरहसे संयम और उपवास किये हुए हो न?"
उत्तर-"हां"
सत्या०--"अच्छा, तुम लोग यहीं भगवान के सामने प्रतिज्ञा करो कि हम सन्तानधर्मके सब नियमोंका पालन करेंगे।'
दोनों-"करेंगे।"
सत्या०-"जबतक माताका उद्धार नहीं हो जाता, तबतक गृहस्थधर्मका परित्याग करोगे न?”
दोनों-"हां, करेंगे।"
सत्या०-"मां-बापको त्याग दोगे?"
दोनों-"हां।"
सत्या०-"भाई-बहनको?"
दोनों०-"हाँ, उन्हें भी छोड़ देंगे।"