पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९४
आनन्द मठ


दोनों-"हम सब एकही मांकी सन्तान हैं। अतएव हम-लोग जाति-पांतिका विचार न करेंगे।"

सत्या०-"तब आओ, मैं तुम लोगोंको दीक्षा दूं। तुम लोगोंने जो प्रतिज्ञाए अभी की हैं, उन्हें कभी न तोड़ना। स्वयं मुरारी इसके साक्षी रहेंगे जिन्होंने रावण, कंस, हिरण्यकशिपु, जरासन्ध, शिशुपाल आदिको मार डाला था; जो सर्वान्तर्यामी, सर्वमय, सर्वशक्तिमान और सर्व नियन्ता हैं: जो इन्द्रके वज्र और बिल्लीके नखोंमें तुल्यरूपसे वास करते है, वे ही प्रतिज्ञा भंग करनेवालेको मारकर घोर नरकमें डाल देंगे।" दोनों-“बहुत अच्छा।

सत्या०-"अच्छा, तो अब गाओ-वन्देमातरम्।”

दोनों ही उस अकेले मातृमन्दिर में मातृ-स्तुतिका गान करने लगे। इसके बाद ब्रह्मचारीने उन लोगोंको यथाविधि दीक्षा दी।



छठा परिच्छेद

दीक्षा समाप्त कर सत्यानन्द महेन्द्रको एकान्त स्थानमें ले गये। दोनोंके बैठ जानेपर सत्यानन्दने कहा,-“देखो, बेटा! तुमने जो यह महाव्रत ग्रहण किया है, उससे मैं समझता हूं कि भगवान् हम लोगोंके प्रति अनुकूल हो रहे हैं। तुम्हारे हाथों माँका बहुत काम निकलेगा। तुम खूब मन लगाकर मेरी बातें सुनो। मैं तुमको जीवानन्द और भवानन्दके साथ-साथ वन-वन भटकते हुए युद्ध करनेको नहीं कहता। तुम पदचिह्न ग्राममें लौट जाओ। तुम्हें घरपर रहकर ही सन्तानधर्मका पालन करना होगा।"

यह सुन, महेन्द्र बड़े हो विस्मित और दुःखित हुए, पर कुछ