पृष्ठ:आनन्द मठ.djvu/९९

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पांचवां परिच्छेद


बोले नहीं। ब्रह्मचारी कहने लगे,-"यहां हमारा कोई आश्रय नहीं है-ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ यदि कोई प्रबल सेना आकर हमें घेर ले, तो हम रसद पानी ले, दरवाजा बन्द कर दस दिन निर्विघ्न रह सकें। हमारे पास कोई किला तो है नहीं तुम्हारे महल अटारी है, गांवपर तुम्हारा रोबदाब है। मेरी इच्छा है कि वहां एक गढ़ बनाऊँ। खाई और शहरपनाहोंके द्वारा पदचिह्न ग्रामको अच्छी तरह घेरकर, बीच बीचमें पहरेका इन्तजाम कर देने और बांधके ऊपर तोपें बैठा देनेसे बड़ा बढ़िया किला तैयार हो जायगा। तुम अपने घर चले जाओ, धीरे-धीरे सन्तान-सम्प्रदायके दो हजार आदमी भी वहां पहुंच जायेंगे। वेही लोग यह खाई और बांध वगैरह तैयार कर देंगे। तुम वहां एक बड़ासा लोहेका मकान बनवा लेना, जिसमें सन्तानोंका खजाना रहेगा। मैं अशर्फियोंसे भरे हुए सन्दूक एक एक कर तुम्हारे पास भेजता रहूंगा। तुम उसी धनसे धीरे-धीरे यह सब काम पूरा करा लेना। मैं जगह जगहसे होशियार कारीगर ढूढ़ कर वहां भेजूंगा। उनके पहुंच जानेपर तुम वहां कारखाना खोल देना, जिसमें तोप, गोला, गोली, बारूद, और बन्दूकें तैयार हुआ करेंगी। मैं इसीलिये तुम्हें घर जानेको कह रहा हूं।" महेन्द्रने सब स्वीकार कर लिया।




सातवां परिच्छेद

सत्यानन्दके चरणोंमें प्रणाम कर महेन्द्र जब चले गये, वह दूसरा शिष्य जो उसी दिन दीक्षित हुआ था, वहां आ पहुंचा। उसके प्रणाम करनेपर सत्यानन्दने उसे आशीर्वाद देकर मृगचर्मपर बैठनेके लिये कहा। इधर-उधरकी कुछ बातें करनेके