सातवाँ परिच्छेद मुख्य धन्धे-कृषि ( Agriculture ) प्रारम्भ में मनुष्य जब वनों में रह कर वहां के पशु पक्षियों को मारकर तथा फलों इत्यादि से अपनी उदर पूर्ति करता था कृषि का प्रादुर्भाव उस समय उसमें तथा पशुत्रों में विशेष अन्तर नहीं था। किन्तु क्रमश: मनुष्य की जनसंख्या बढ़ती गई और उसके लिए अधिकाधिक भोजन की आवश्यकता हुई । बढ़ती हुई जनसंख्या के भोजन के लिए केवल वनों से यथेष्ट भोजन नहीं प्राप्त हो सकता था. अतएव मनुष्य ने पशुओं को न मारकर उन्हें पालना प्रारम्भ किया। क्योंकि उन्हें मार कर खाने में जितना भोजन प्राप्त हो सकता था उससे कहीं अधिक भोजन उन्हें पाल कर उत्पन्न किया जा सकता था। साथ ही पशुओं को पालने से भोजन अधिक निश्चित रूप से प्राप्त हो सकता था.। अतएव मनुष्य ने उपयोगी पशुओं के पालने का धंधा अपना लिया। वनों से फल इत्यादि इकट्ठा करने से मनुष्य को यह भी ज्ञात हो गया कि कुछ पौधे (गेहूँ, चावल, इत्यादि ) उसके लिए अधिक उपयोग के हैं और अन्य पौधे उपयोगी नहीं हैं। प्रारम्भ में प्रत्येक पौधा जंगली अवस्था में उत्पन्न होता था, श्रतएव उपयोगी पौषों के पास पास अनुपयोगी पौधे भी उगे रहते थे। मनुष्य को उपयोगी पौधों के अनाज को इकट्ठा करने में बड़ी होती थी। अतएव उसने अनुपयोगी पौषों को काटना श्रारम्भ कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि एक ज़मीन के टुकड़े पर केवल उपयोगी पौधे ही रहने दिये जाते थे और जब अनाज पकता था उस समय आसानी से अनाज को काट कर इक्ट्ठा किया जा सकता था। अब मनुष्य ने देखा कि इस प्रकार अनुपयोगी पौधों के नष्ट कर देने से उपयोगी पौधों को बढ़वार अच्छी होती है, और वे अनाज अधिक उत्पन्न करते हैं। इधर जन संख्या के बराबर बढ़ने के कारण मनुष्य को अधिक भोजन की आवश्यकता थी। उसने देखा कि इस प्रकार अनाज इकट्ठा करने से बहुत सी भूमि व्यर्थ में नष्ट हो जाती है क्योंकि दो पौषों के बीच में बहुत सी भूमि छूटी रहती थी । श्रतएव उमने सारे टुकड़े को साफ करके उसे जोत कर उपयोगी पौधों के बीज बराबर बराबर दूरी पर डाल कर खेती करना प्रारम्भ कर.दी। बारम्भ में मनुष्य जंगलों को जलाकर साफ कर लेते और फिर कुछ वर्ष लगातार उस पर फसल पैदा करते रहते
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