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आर्थिक भूगोल

. " श्राधिक भूगोल थे। जब इस प्रकार खेती करने से भूमि निर्बल हो जाती तब वे उस टुकड़े को छोड़ कर दूसरे टुकड़े को साफ करते और उस पर खेती करने लगते। श्राज भी कतिपय पिछड़े हुये भूभागों में जंगली जातियाँ इसी प्रकार खेती करती हैं। परन्तु जैसे जैसे जन संख्या बढ़ती गई और भूमि की कमी होती गई इस प्रकार की खेती करना असम्भव होता गया। अन्न मनुष्य एक ही स्थान पर जम कर रहने लगा और उसी भूमि पर लगातार खेती करने के लिए विवश हो गया किन्तु ऐसा करने से बहुत सी समस्यायें उठ खड़ी हुई । भूमि की उपजाऊ शक्ति को कम न होने देना, पानी की कमी होने पर सिंचाई का प्रबंध करना, तथा फसल के शत्रुओं से फसल की रक्षा करना इत्यादि। जैसे जैसे मनुष्य को खेती का अनुभव होता गया वैसे ही वैसे वह खेती की उन्नति करता गया। यह तो पहले ही कहा जा चुका है कि खेती जलवायु और भूमि पर निर्भर है । किन्तु जलवायु तथा भूमि सब जगह एक सी नहीं होती। अतएव भिन्न प्रकार की जलवायु तथा भूमि पर खेती करने के ढंग में थोड़ा हेर फेर करना पड़ा। यही नहीं खेती की अन्य समस्याओं को हल करने के लिए मनुष्य ने सिंचाई, खाद. और फसल की रक्षा का प्रबंध किया तथा भिन्न भिन्न जलवायु में उत्पन्न हो सकने वाले बीज उत्पन्न किए। सच तो यह है कि मुख्य धंधों ( Primary Industries ) में खेती ही एक ऐसा धंधा है कि जिसमें मनुष्य के श्रम का महत्वपूर्ण स्थान है अन्यथा अन्य मुख्य धन्धों: (Primury Industries) में प्रकृति का ही मुख्य हाथ रहता है। मनुष्य केवल प्रकृति की देन को एकत्रित कर लेता है, वनों, खानों तथा समुद्री मछलियों से क्रमशः लकड़ी, पातु और मछलियाँ इकट्ठी करने में मनुष्य का कोई विशेष हाथ नहीं रहता। आधुनिक काल में खेती वैज्ञानिक ढंग से की जाती है और जनसंख्या के अधिक बढ़ जाने के कारण थोड़ी भूमि से आवश्यक भोज्य पदार्थ .. तथा कच्चा माल उत्पन्न करना पड़ता है, इस कारण अधिकांश देशों में गहरी खेती ( Intensive Cultivation ) की जाती है। (अर्थात् थोड़ी भूमि पर अधिक से अधिक पूँजी (Capital ) और श्रम (. Labour ) लगा कर उत्पत्ति के बढ़ाने का प्रयत्न करना )। आधुनिक काल में मनुष्य ने खाद का उपयोग सीख कर भूमि की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने का आय हूँढ निकाला है। जहाँ पानी की कमी होती है वहीं सिंचाई के साधन उपलब्ध कर दिये हैं। और यदि किसी प्रदेश की मौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसका वह कोई उपाय नहीं हूँढ़