पृष्ठ:आर्थिक भूगोल.djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
आर्थिक भूगोल के सिद्धान्त

आर्थिक भूगोल के सिद्धान्त ( Equntor ) के सघन वनों में जो पिछड़ी हुई जातियों रहती हैं वे जलवायु के ही कारण इतनी पिछड़ी हुई हैं। जलवायु का प्रभाव केवल यहाँ तक ही परिमित नहीं है। जिन देशों में ठंड अधिक पड़ती है वहाँ का समुद्र तथा नदिया जाड़े में जम जाती हैं और इसका फल यह होता है कि वहाँ का व्यापार रुक जाता है । सायबेरिया सभ्य संसार से केवल इसी कारण पृथक है क्योंकि उसकी नदियों तथा समुद्र जाड़े में जम जाते हैं और बन्दरगाहों में जहाज़ नहीं आ-जा सकते । यही कारण है कि रूस काले-सागर ( Black- Sen ) के द्वारा मैडीटरेनियन सागर में जाने के लिए दरेदानियाल के मुहाने को अपने कब्जे में रखना चाहता था, कि जिससे जाड़े में भी उसको व्यापार का सुविधा हो। शीतोष्ण ( Temperate) तथा ध्रुवों ( Poles ) के समीप के प्रदेशों में गरमी का मौसम पैदावार तथा व्यापार के लिए अत्यन्त सुविधाजनक होता है, किन्तु जाड़ा सुस्ती तथा व्यापार की मंदी का समय होता है। इन देशों में जाड़े के दिनों में पौधा उग ही नहीं सकता, और यदि उग भी जाय तो ज्यादा दिनों जिंदा नहीं रह सकता । इसका फल यह होता है कि इन देशों में गरमी के मौसम में लोग साल भर के लिए भोजन उत्पन्न करने में बड़ी लगन तथा मेहनत से काम करते हैं तथा जाड़े के दिन आलस्य के होते हैं। बरसात के दिनों में मानसून वाले प्रदेशों में अधिक काम नहीं होता । भारतवर्ष में वर्षा के दिनों में किसान खाली रहता है, यही कारण है कि इन दिनों यहाँ श्रल्हा, नौटंकी तथा तमाशों की धूम रहती है। जो जातियां एक से जलवायु में रही हैं उनकी रहन-सहन बहुत कुछ एकसी ही होती है। इस कारण ऐसी जातियो शीघ्र जलवायु और ही अपने देश के समान जलवायु वाले देशों में जाने प्रवास को तैयार हो जाती हैं। भिन्न जलवायु मनुष्य के (Migration) प्रवास के लिए बाधक है। ब्रिटिश जाति के लोग प्रति वर्ष कनाडा तथा संयुक्तराज्य अमेरिका में जाकर बसते हैं किन्तु बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी आस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी- अफरीका में अधिक मनुष्य जाकर नहीं बसते । भारतवर्ष के गरम मैदानों की भीषण गरमी से घबराकर अंग्रेज़ तथा हिन्दुस्तानी हिमालय तथा दूसरे पहाड़ी स्थानों पर चले जाते हैं । इस थोड़े काल के प्रवास के ही कारण शिमला, नैनीताल, दार्जलिंग, मंसूरी, उटकमंड, पंचमढ़ी तथा श्राबू महत्वपूर्ण स्थान बन गये हैं। आ. भू०-२