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भारतवर्ष की प्रकृति

भारतवर्ष की प्रकृति ३८७ (१) जाड़ों में भी भारतवर्ष का तापक्रम ( Temperature ) बहुत नीचा नहीं होता। भारत के प्रत्येक भाग में जाड़ों में भी यथेष्ट गरमी रहती है। इस कारण खेती के लिए लम्बा समय मिलता है। पौधों को उगने के लिए जाड़ों में भी यथेष्ट गरमी मिल जाती है। विशेष कर जाड़ों में पाला और कुहरा प्रायः नहीं होता। इस कारण भारत जाड़ों में तो शीतोष्ण कटिबध की फसलें उत्पन्न कर सकता है और गरमियों में ऊष्ण कटिबंध ( Tropics ) तथा अर्ध ऊष्ण कटिबंध (Sub-Tropics ) को फसलें उत्पन्न कर सकता है। बंगाल और आसाम तथा दक्षिण प्रायद्वीप में नहीं सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं इन सूखे महीनों में भी फसलें उत्पन्न की जा सकती हैं। इस कारण इन प्रदेशों में वर्ष में चावल की तीन फसलें तक उत्पन्न हो सकती हैं। (२) अधिकांश वर्षा जून जुलाई और अगस्त में होती है इससे ज्वार बाजरा की फसलें शीघ्र तैयार हो जाती हैं और इन दिनों के गरम और नम जलवायु के कारण पौधों की खूब बढ़वार तथा उत्पत्ति होती है जिससे कि पशुओं को यथेष्ट चारा मिल जाता है। (३) गरमियों में तापक्रम बहुत जल्दी ही ऊँचा हो जाता है इस कारण भारत में फसलें शीघ्र पक कर तैयार हो जाती हैं। शीघ्र पकने के कारण यहाँ की पैदावार उतनी बढ़िया नहीं होती जितनी कि अन्य देशों की । जाड़े और गरमियों दोनों की फसलों के लिए यह बात . है क्योंकि दोनों ही फसलें गरमी में पकती हैं। (४) वर्षा क्योंकि वर्ष में तीन चार महीनों ही होती है इस कारण वर्ष का शेष माग सूखा रहता है। इसका परिणाम यह होता है कि यहाँ घास के मैदान नहीं हैं। जो कुछ भी घास वर्षा के दिनों में उगती है वह वर्षा के उपरान्त धूप की तेज़ो से जल जाती है इस कारण भारत में चारे की कमी रहती है और जो कुछ चारा होता है वह घटिया होता है । (५) वर्षा पश्चिम में कम हाती है ( संयुक्तप्रान्त और पंजाब ) और यही उपजाऊ मैदान ऐसे हैं जहाँ जाड़ों में यथेष्ट जाड़ा पड़ता है इस कारण ही यहाँ गेहूँ जो शीतोष्ण कटिबंध ( Temperate Zone ) की पैदावार है खूब उत्पन्न होता है। (६) भीषण गरमी के उपरान्त वर्षा के आने से बहुत से रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए कुछ भागों में मलेरिया का भीषण प्रकोप होता है। जहाँ वर्षा अधिक होती है वहा मलेरिया के कारण जनसंख्या की कार्य-क्षमता नष्ट हो जाती है। • लागू होती