बार्षिक.भूगोल ने भी चमड़े के कारखाने खोले । क्रमश: कानपूर चमड़े के धंधे का केन्द्र बन गया । कानपुर में खाल की मंडी है, पानी मिलने की सुविधा है और बबूल की छाल भी मिल जाती है 1 मदरास और बम्बई में भी चमड़े के कारखाने खोले गए । दक्षिण भारत में चमड़ा कमाने के काम में श्राने वाली छाल बहुत मिलती है। इस कारण चमड़े का धंधा दक्षिण में केन्द्रित हो गया। मदरास में चमड़े के सबसे अधिक कारखाने हैं। इनके अतिरिक्त आगरा, सहारनपूर तपा अन्य स्थानों पर. भी चमड़े का धंधा होता है। पिछले महायुद्ध के उपरान्त भारतवर्ष में क्रोम पद्धति द्वारा क्रोम चमड़ा तैयार होने लगा है। भारत सरकार ने धंधे को विदेशो चमड़े की प्रतिस्पर्धा से यचाने के लिए उसे संरक्षण प्रदान कर दिया है । १६३६ के योरोपीय महायुद्ध के फल स्वरूप चमड़े के धंधे की विशेष उन्नति हुई है। चमड़ा कमाने के धंधे का विस्तार भारत प्रति वर्ष २ करोड गाय और बैलों की. तथा ३५ लाख भैंसों की खालें उत्पन्न करता है | २ करोड बीस लाख बकरे तपा ३० लाख भेड़ों की खालें भी उत्पन्न होती हैं। इसमें से लगभग ६० प्रतिशत गाय-बैल और भैंसों की खालें तथा ४० प्रतिशत भेड़-बकरियों की खालों को भारत में कमाया जाता है और उनका चमड़ा बनाया जाता है शेष विदेशों को भेज दी जाती हैं। चमड़ा कमाने के केन्द्र मदरास, कानपूर, बाटानगर ( कलकत्ता ), देहली, सहारनपूर में केन्द्रित हैं । बाटानगर, कानपूर तथा प्रागरा और कलकत्ते में जूते बनाने का धंधा बहुत उन्नति कर गया है। महायुद्ध के समय पशुओं को सेना के लिए मारने के कारण खालों की उत्पत्ति बढ़ गई और सेना के उपयोग के लिए चमड़े की उत्पत्ति भी बहुत बढ़ाई गई। लगभग ४० चमड़ा कमाने के छोटे कारखाने स्थापित और नावैस्ट टैनरी ने अपनी उत्पत्ति को कई गुना कर दिया । युद्ध के पूर्व यह कारखाना २००० जोड़े प्रतिदिन तैयार करता था अब वह १००० जोड़े प्रतिदिन तैयार करता है इसी प्रकार बाटानगर के कारखाने ने अपनी उत्पत्ति को दुगना कर दिया है। भारतवर्ष में शीशे का धंधा बहुत पुराना है किन्तु श्राधुनिक ढंग के कारखाने पिछले ३. या ३५ वर्षों में ही स्थापित शीशे का धंधा · ये हैं। (Glass Industry). आगरा और कानपूर की
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