गोपी विरह लै लै अलि झूली डारें फूलो अनफूलो हू ते, . भूली भूली फूल ही सी नारी मुरझाती है । जरी जरी रह सह घरी घरी हरी कह. + - हरी हरी येलें देखि मरी मरी जाती हैं ॥२३४॥ फूल फुरमान छाप छपद' दुहाई पास, नूतन सुसाज टेसू तंय दै पगेरी है। • कोर कारकुन पिक यानी चोठी आई जमा, घिरह पढ़ाई छषि रंयति मरोरी है। सीतल पयारि घादि मापि रूप लीनो है री, उपज हमारे हरि ध्यान तु घरोरी है। आयो है बसन्त ग्रज ल्यायो है लिखाइ आली, जोन्ह के जलेबदार काम को करोरी है ॥२३५॥ पंकज पटीर देखे दूनी दुखः पीर होत, सीरे ह उसीरनि ते पीर चीर हार की । अंवा सो प्रयास भयो तथा सो तपत तनु, अति दी तपत लागे भार धनसार की । 'सालम' सुकवि छिन छिन मुरझानि जाति,. . सखिन विचार तजी रीति उपचार की । मन ही मारे मरि रही मन मारि नारि, . एक ही मुरारि दिनु मारी मरें .मार की ॥२३६॥ ।१-छपा- भोग । २-जदेवमासाहब । ३-करोत- तहसीलदार । ४-~-पटोरपाटीर) चंदन।
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