पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/४२६

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ti2OVEMBER अथ आल्हखण्ड॥ कीरतिसागरकायुद्धवर्णन॥ सवैया॥ कीरति सिंधु शिवा शिव पै हम अक्षत चन्दन फूल चढ़ावें। मानस ऐसो चहै हमरो पर आलस सों अस होन न पावें ॥ धावे सबै दिशि पापसमूह औ हूह मचावत हूलत आर्के । सार यही ललिते जगको मुदसों नित शम्भु शिवा मन ध्यावे ? सुमिरन॥ सुमिरन करिक शिवशङ्कर को रणमें चढ़े राम महराज ॥ एकरूप सों हनुमत बैक कीन्हे सकल रामके काज १ मुख्य स्वरूपी शिवशङ्कर के डमरू एक हाथ में राज ।। लिहे त्रिशूलौ दुसरे हाथे मुण्डनमाल गरे में भ्राज २ भस्म रमाये सब अंगन में खाये भंग धतूरा ईश ।। कण्ठ हलाहल अतिसोहत है सोहैं श्वेतवरण जगदीश नग्न अमंगल मंगलकारी हारी तीनि ताप वागीश