पृष्ठ:आल्हखण्ड.pdf/६१५

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आल्हखण्ड। ६१४ धर्म न रहै क्यहु कलियुगमा सब चिन धर्म जगतलैजायः४ यह सोचिकै आल्हा ठाकुर इन्दल बोले बचन सुनाय॥ माता तुम्हरी नाम हमारो लीन्यो सुनो बनाफरराय ६५ दुर्गति होई अब कलियुग मा ताते देय पूत वतलाय ।। करो तयारी बन कजरी की अपनो मया मोह विसरायः६ इतना कहिकै आल्हा ठाकुर हाथी चढ़े तड़ाका धाय ।। इन्दले बैठे फिरि घोड़े पर, साथै कूच. दीन करवाय ६७ इन्दल इन्दल के गुहरायो सुनवाँ चली पछारी धाय ।। पूंछ पकरिकै पशब्दा के सुनवाँ गजैघसीटतिजाय ६८ ऐंचि खड्ग को आल्हा ठाकुर तुरतै दीन्ह्यो पूँछ गिराय॥ विना पूँछ का पचशब्दा फिरि कजरी बने पहूँचा जाय ६६ रही न आशा क्यहु जीवनकी सबहिन दीन्ही देहजराय ।। प्राण आपने नारी तजि के सुरपुर गई तड़ाका धाय १०० सुनवाँ फुलवा चित्तररेखा द्यावलिसहित मरींसबआय ।। मोहबा दिल्ली दउ शहरन में रॉडन अँडभये अधिकाय१०१ छाय उदासी गै दोऊ दिशि विपदा कही बूत ना जाय ॥ रानी मल्हना मोहने वाली मनमासोचिसोचिरहिजाय१०२ तुम्हें विधाता अस चाही ना जैसी विपति दीन अधिकाय॥ दुःखित ढकै महरानी फिरि पारस पत्थर लीन उठाय १०३ जाय सिरायो सो सागर में चन्दन अक्षत फूल चढ़ाय।। धूप दीप ओं कीन आरती मेवा मिश्री भोग लगाय१०४ हवन ब्राह्मण को भोजन दे बोली हाथ जोरि शिरनाय ।। जो कोउ राजा हो मोहवे में पारस रह्यो तासु घरआय १०५ इतना कहिके रानी मल्हना महलन फेरि पहूँची भाय ।।