हेर फेर
लाहौर मे स्वदेशी प्रदर्शिनी की बड़ी धूम थी। दिन छिपते
ही वजहदार स्त्री-पुरुषों के ठठ-के-ठठ वहाँ जा जुटते थे। इस
नुमाइश में उद्योग-धधे, कला-कौशल की कोई ऐसी चीजे नहीं
दिखलाई गई थीं, जिससे देश के करोड़ो बेकार युवकों या
अभागिनी, असहाय स्त्रियों को कोई पेट भरने का धंधा मिले
इसमे सैकड़ों दुकाने ऐसी थी, जिनपर मॉग-पट्टी से चाक-
चौबन्द , सूट-बूटधारी युवक सुनहरा चश्मा चढ़ाए अपने
दिलचस्प ग्राहकों की आवभगत हँस-हँससर और तीन-तीन बल
खाकर, करने को डटे खड़े रहते थे। इनकी ग्राहिकाएँ थीं बहार-
दार लेडियॉ, फैशन की पुतलियॉ या मर्दनुमा साहसी युवतियाँ,
जिनका फिजूलखर्ची एक धंधा ही हो गया है। वे सब एक-से-
एक बढ़कर साड़ियाँ पहने, ऊँची एड़ी के जूते कसे, तितलियाँ
बनी फिर रही थीं। प्रत्येक दुकान पर इन्हीं के मतलब का ढेरों
माल भरा हुआ था। जहाँ खड़ी हो जाती, युवक दूकानदार ऑखे
बिछाते, मुस्किराहट के जाल फैलाते, बलिहारी जाते और झुक-
झुककर जमनास्टिक की-जैसी कसरते करते थे।
.
पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१००
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
