इन प्रदर्शिनियों से और कुछ हो चाहे न हो, पर दो काम तो अवश्य हो जाते हैं—एक तो स्त्रियों को फिजूल सामान खरीदने के सबंध में बहुत काफी उत्तेजना मिल जाती है, जो वे सजे-धजे दूकानदारों से दुगने मोल में खरीदती है; दूसरे, यारों को आंखें सेकने का अच्छा स्थान और अवसर मिल जाता हैं।
शाम होते ही युवकों के झुँड-के-झुँड टोली बाँधकर प्रदर्शिनी में आजाते हैं। बीसवीं सदी मे पंजाब ने जो अल्हड़ बछेड़ियाँ पैदा की हैं, वे किस लापरवाही से अपने मनोरजक, धारीदार, घुटनों तक लटकते कुर्तो को हवा में फरफराती, सलवार को हिलाती, दुपट्टी को लापरवाही से हवा से अठखेलियाँ करने का अवसर देती, अपने रूप को रास्ते मे बखेरती फिरती हैं, यह सब देखना इन युवकों का सांध्य कृत्य होता हैं।
एक-एक की नख-शिख-आलोचना होती हैं। किसके आँख, नाक, बाल कैसे हैं? रंग कैसा हैं? नज़र कैसी? कौन किसकी बहू-बेटी, भतीजी-भांजी हैं? किसकी तरफ़ गर्दन मरोड़कर देखा? किसने कटाक्ष-पात किया? ये ही महान् विषय इन पढ़े-लिखे सुसभ्य लाहौरी युवकों की चर्चा के विषय होते हैं। वास्तव में ये प्रदर्शिनियाँ स्वदेशी वस्तुओं की नहीं, प्रत्युत विदेशीनुमा प्यारे स्वदेशी युवक-युवतियों की होती हैं। यही कारण हैं कि इनमें कोई नवीनता न रहने पर भी, फ़िजूल खर्च होने पर भी शाम से जो भीड़ का जमघट जुटता हैं, तो आधी रात तक रहता ही हैं।
(२)
बसतलाल हृष्ट-पुष्ट जवान थे। आँखों में रस था, और चेहरा दमकता हुआ, जिससे प्रतिभा झलकती थी। काव्य के प्रेमी और सौंदर्य के उपासक| उन्हें प्राकृतिक दृश्य देखने का बड़ा शौक था। काश्मीर, मसूरी, शिमला सब उनका