पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१०२

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हेर फेर १०१ 1 देखा हुआ था । वह बनारस के निवासी थे, प्रकृत साहित्यिक थे। हिदी के प्रेमी थे, कवि और लेखक भी। अभी अनुभव और विद्या-प्रौढ़ता न थी, पर कलम में ओज और रस था। उनके यश की चॉदनी धीरे-धीरे हिन्दुस्तान भर मे फैलती जा रही थी। अपने तीन-चार लाहौरी मित्रों के साथ एक दिन बसंतलाल भी प्रदर्शिनी मे गए । वह पूरव के पदे के अभ्यस्त थे। पूर्व भारत मे पर्दा उठा है सही, पर उसे पर्दा उठना नही कह सकते । वहां की पर्दे में कुचली हुई, मुर्भाई हुई, पिलपिली, बासी ककड़ी के समान स्त्रियों को उन्होंने महिला रूप में देखा था। अब जो यहाँ पंजाब मे आए, तो पंजाबी बछेड़ियों को देख- कर दंग रह गए ! महीन तबियत के आदमी थे, रूप किसी का पसंद न आता था । वह कवित्व की दृष्टि से देखते, एक-आध ऐब दिखलाई ही पड़ जाता । उन्हें यहाँ सब से बुरा तो यह मालूम हुआ कि ये स्वस्थ ; सुन्दर, कनक-छरी-सी युवती लड़कियों और ललनाएँ किस लापरवाही और फूहड़ ढग से खोमचे वालों के इर्द-गिर्द बैठकर दनादन पत्ते चाट रही हैं। वह पर्दे के पक्ष- पाती तो नही, पर मर्यादा, सुघराई और शिष्टाचार के हिमायती थे। सोचने लगे, ये हुड़दंगी बछेड़िया हैं या भले घर की लड़- कियां ? किसी भले आदमी की तनख्वाह तो ये आलू-छोलों की चाट मे ही उड़ा दे सकती हैं। सब मित्र घूम रहे थे। बातचीत का जोर बॅधता ही जाता था। विवाद के मुख्य विषय थे टाकी-फ़िल्म और हिन्दी। एक मित्र ने कहा-"टाकी फिल्मों का जैसे-जैसे ज्यादा जोर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे देश में हिन्दी का प्रचार भी खूब बढ़ रहा है। हिन्दी-उर्दू का भेद भी मिटता जा रहा है।" दूसरे ने कहा-"अब तो ऐसा मालूम हो रहा है कि बहुत