देखा हुआ था। वह बनारस के निवासी थे, प्रकृत साहित्यिक थे। हिन्दी के प्रेमी थे, कवि और लेखक भी। अभी अनुभव और विद्या-प्रौढ़ता न थी, पर कलम में ओज और रस था। उनके यश की चाँदनी धीरे-धीरे हिन्दुस्तान भर मे फैलती जा रही थी। अपने तीन-चार लाहौरी मित्रों के साथ एक दिन बसंतलाल भी प्रदर्शिनी में गए। वह पूरव के पढ़े के अभ्यस्त थे। पूर्व भारत में पर्दा उठा है सही, पर उसे पर्दा उठना नही कह सकते। वहां की पर्दे में कचली हुई, मुर्झाई हुई, पिलपिली, बासी ककड़ी के समान स्त्रियों को उन्होंने महिला रूप में देखा था। अब जो यहाँ पंजाब में आए, तो पंजाबी बछेड़ियों को देख- कर दग रह गए! महीन तबियत के आदमी थे, रूप किसी का पसंद न आता था। वह कवित्व की दृष्टि से देखते, एक-आध ऐब दिखलाई ही पड़ जाता। उन्हें यहाँ सब से बुरा तो यह मालूम हुआ कि ये स्वस्थ; सुन्दर, कनक-छरी-सी युवती लड़कियाँ और ललनाएँ किस लापरवाही और फूहड़ ढंग से खोमचे वालों के इर्द-गिर्द बैठकर दनादन पच चाट रही हैं। वह पर्दे के पक्ष-पाती तो नही, पर मर्यादा, सुघराई और शिष्टाचार के हिमायती थे। सोचने लगे, ये हड़दंगी बछेड़िया हैं या भले घर की लड़कियां? किसी भले आदमी की तनख्वाह तो ये आलू-छोलों की चाट मे ही उड़ा दे सकती हैं।
सब मित्र घूम रहे थे। बातचीत का जोर बँधता ही जाता था। विवाद के मुख्य विषय थे टाकी-फ़िल्म और हिन्दी।
एक मित्र ने कहा—"टाकी फिल्मों का जैसे-जैसे ज्यादा जोर बढ़ता जाता हैं, वैसे-वैसे देश में हिन्दी का प्रचार भी खूब बढ़ रहा हैं। हिन्दी-उर्दू का भेद भी मिटता जा रहा हैं।"
दूसरे ने कहा—"अब तो ऐसा मालूम हो रहा हैं कि बहुत
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