शीघ्र पंजाब में भी हिन्दी-ही-हिन्दी हो जायगी। यहां औरतों ने तो राष्ट्र-भाषा को बहुत कुछ अपना लिया हैं। सिर्फ विलायती सभ्यताप्रेमी मर्द लोगों में ही अभी तक अँगरेज़ी का बोल-बाला हैं। शायद ये लोग अँगरेज़ी से राष्ट्र-भाषा का काम लेना चाहते हैं। इनकी आँखे कब खुलेगी?"
शहर में सुलोचना की ताज़ी फिल्म आई थी, यार लोगों ने उसकी भी चर्चा उठा दी। एक मित्र लगे सुलोचना के नख-शिखं की आलोचना करने। उस आलोचना में कुछ सौंदर्य-ज्ञान था, कुछ भावुकता, कवित्वं और कुछ आवेश। यार लोग सुन रहे थे; हँस रहे थे, फड़क रहे थे। वह मित्र सुलोचना का आपे से बाहर होकर नख-शिख-वर्णन कर रहे थे। एकाएक एक दूसरे मित्र में कहा—"उस्ताद! इस रूप की प्रदर्शिनी में सुलोचना के जोड़ की कोई चीज़ टटोली जाय।" एक ज़ोर के ठहाके के साथ प्रस्ताव का जोरों से अनुमोदन और समर्थन हुआ। मडली सुलोचना की एक प्रतिमूर्ति की तलाश में प्रदर्शिनी में घूमने लगी। वे लोग प्रत्येक स्त्री को, युवती को, कुमारी को देखने—अपनी नज़रों में तोलने लगे।
एकाएक वसंतलाल चिल्ला उठे। जिसे देखकर वह चिल्लाए थे, उसने चौककर उनकी ओर देखा—आँखें चार हुई, और फिर झुक गईं मित्रों ने पूछा—"क्या हुआ?" बसतलाल ने एक युवती की ओर संकेत किया। सचमुच वहाँ ५ साल पहले की सुलोचना खड़ी अपनी माधुरी बखेर रही थी। वही कद, वही रंग-रूप वही सुडोल शरीर, वहीं रसीली आँखे, वही मुस्किराते हुए होठ।'
युवती की अवस्था १९-२० वर्ष की थी। उसे देखकर मिश्र-मडली स्तभित रह गई! ऐसा मनोहर रूप रंग, शरीर सदा देखने को नहीं मिलता। सुंदरी किसी दूकान पर एक जरी-कोर की