पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१२

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आवारागर्द


परम प्यारी, प्राणों की दुलारी" फिर कहा-"आप खुद पढ़िये"

मैंने आगे पढ़ना शुरू किया--"तुम राजी-खुशी काश्मीर.." उसने बाधा देकर पत्र को दोनों हाथों से ढांप लिया, और ऊपर की पंक्ति पर मेरी उंगली रखकर कहा--"यहां से पढ़िये"

मैंने पढ़ा--"मेरी परम प्यारी, प्राणों की दुलारी।" उसने मेरे साथ प्रत्येक अक्षर को दुहराया, उसकी आँखों से आँसुओं की धार वह चली, और वह फिर मेरे घुटनों पर सिर रख कर सिसकने लगी,

मैं घपले मे पड़ गया, सच कहूँ, मैं इतना द्रवीभूत होगया कि उसकी पीठ और सिर पर हाथ फेरने लगा, कुछ देर बाद मैंने कहा-“लाओ, चिट्ठी पढ़ूँ तो।" उसने चिट्ठी मोड़कर कहा-“मत पढ़ो मत पढ़ो-मैं सुन नहीं सकती, जिन्होंने लिखी थी, वह अब नहीं हैं, उन्होंने इतने खत लिखे हैं, गिनकर देखो, कितने हैं, पर अब नहीं लिखेगे, उसने ऊपर मुँह उठाया-टपाटप आँसू गिर रहे थे, होंठ काँप रहे थे, उसने घुटनों के बल उकसकर अपने को मेरी गोद मे डाल दिया,

उस सुखद अनुभूति का कैसे वर्णन करूँ, उसके केश-गुच्छ मे खोंसे हुए फूल की सुगंध से, उसके प्रेमी हृदय के हाहाकार से, उसके कोमल गात्र के आलिगन से जैसे मैं अपने ही मे मूर्छित हो गया। मैंने सोचा-क्या यह मुझे अपना कोई पूर्वपरिचित समझती है, या इसे होश-हवास ही नहीं, मैंने भी तो अपनी बातों से उसे खूब मुगालते में डाला, खत में मैंने उसका नाम पढ़ लिया था--रुक्मिणी।

मैंने आर्द्र स्वर से कहा--"रुक्मिणी, इतना र ज न करो, जो चला गया, उस पर सब करो, और जो मिल गया, उसके लिये ईश्वर को धन्यवाद दो।"