पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१२०

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वह कहे तो ११७ 15 " { "चाहे जो हो, देखेंगी जरूर तीन-चार सखी चलीं--इठलाती, ठठोली मारती । सुहागी ने बढ़िया चोली कसी, जरीकाम का सलवार पहना, गोटे की ओढ़नी ओढ़ी । सब गहने सजे । वह सखियों के साथ बंसी को देखने चली। सब हँसती थीं, वह भी हँसती थी। सब कहतीं, वह काठ का उल्लू है। सुहागी भी उनके स्वर मे स्वर मिलाती थी। अनारकली मे सब उसकी दूकान के सामने आ खड़ी हुई। सुबह का वक्त था । बसी वहां अकेला ही बैठा था। उसने सुहागी को न पहचाना। वह अब अल्हड़ बालिका न थी, दो बच्चों की माता थी। वह अब कुमारी न थी, युवती थी। बुदन ने आगे बढ़कर कहा--"पहचानते हो?" बसी ने अकचकाकर कहा-"किसे?" "सुहागी को।" "सुहागी को ? कौन है सुहागी ?" कनक ने मुस्किराकर, उँगली के संकेत से बता कर कहा-- "वह सुहागी है।" "वह ।" बसी की मानो श्वास रुक चली। कनक ने प्रगल्भता से कहा--"सदा सुहागी-सुहागी बका करते हो, दे दो न यह थान उठाकर उसे।" बसी ने सामने पड़ा हुआ मखमल का थान उठाकर सुहागी के आगे धर दिया। कनक ने कहा-"बस, एक ही थान ?" बसी ने थानो के ढेर लगा दिए। सुहागी बोली नहीं, हॅसी भी नहीं। वह चुपचाप वहां से चल दी। थान उसने छुए भी नहीं। बसी मत्रबद्ध सर्प की ८