"चाहे जो हो, देखूँगी जरूर।"
तीन-चार सखी चलीं—इठलाती, ठठोली मारती। सुहागी ने बढ़िया चोली कसी जरी-काम का सलवार पहना, गोटे की ओढ़नी ओढ़ी। सब गहने सजे। वह सखियों के साथ बंसी को देखने चली। सब हँसती थीं, वह भी हँसती थी। सब कहतीं, वह काठ का उल्लू हैं। सुहागी भी उनके स्वर में स्वर मिलाती थी।
अनारकली में सब उसकी दूकान के सामने आ खड़ी हुई। सुबह का वक्त था। बंसी वहां अकेला ही बैठा था। उसने सुहागी को न पहचाना। वह अब अल्हड़ बालिका न थी, दो बच्चों की माता थी। वह अब कुमारी न थी, युवती थी।
बुंदन ने आगे बढ़कर कहा—"पहचानते हो?"
बंसी ने अकचकाकर कहा—"किसे?"
"सुहागी को।"
"सुहागी को? कौन हैं सुहागी?"
कनक ने मुस्किराकर, उँगली के संकेत से बता कर कहा—"वह सुहागी है।"
"वह।" बंसी की मानो श्वास रुक चली।
कनक ने प्रगल्भता से कहा—"सदा सुहागी-सुहागी बका करते हो, दे दो न यह थान उठाकर उसे।"
बंसी ने सामने पड़ा हुआ मखमल का थान उठाकर सुहागी के आगे धर दिया।
कनक ने कहा—"बस, एक ही थान?"
बंसी ने थानो के ढेर लगा दिए।
सुहागी बोली नहीं, हँसी भी नहीं। वह चुपचाप वहां से चल दी। थान उसने छुए भी नहीं। बंसी मंत्रबद्ध सर्प की
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