पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/१४

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आवारागर्द

 मैंने कहा--"पियो मैं नाराज नहीं हूँ।"

पीकर जब वह आई, तो मुस्करा रही थी, आवाज़ करारी थी, शरीर में फुर्ती थी। उसने कहा- “बीड़ियाँ तो हैं, क्या सिगरेट मॅंगाऊँ"?

"कैसे कहूँ कि मॅंगाओ।" मेरे पास तो पैसे न थे। मैंने कहा "मगर मैं तो पीता-खाता नहीं।"

"इसका मतलब यह कि एकदम सत हो गए हो।" उसने लड़के को आवाज देकर बुलाया। एक रुपया उसे देकर कहा "कैची की सिगरेट एक पैकेट, माचिस और पान ले आ।" मैं चपचाप देखता रहा।

धीरे-धीरे जैसे मैं जगत् को भूल गया, अपने को भूल गया। रात को भूल गया, दिन को भूल गया। अपने को मैंने चुपचाप पलंग पर डाल दिया--शिथिल-गात और मूर्छित मन।

उसने सिगरेट निकाल कर मेरे होंठों मे लगा दी, और फिर जला दी। धीरे से सिर ऊँचा करके एक छोटा-सा तकिया नीचे रख दिया। दो पान के बीड़े मुँह मे रख दिए। उसने फिर अगरबत्तियाँ कमरे मे जलाई। चारो तरफ देखा, मेरे आराम के लिये जो कुछ किया जा सकता है, वह उसने सब कर दिया या नहीं। फिर वह कमरे के बाहर गई। मैं समझ गया, वह पीने गई है, अपना दर्द दूर करने के लिये। क्षण-भर बाद वह आई, और मेरे पैरों को गोद मे लेकर बैठ गई। उसकी कोमल हथेलियों का सुखद स्पर्श प्राणों को हरा करने लगा। मैं चुप था--वह भी चुप थी-लैप धीरे-धीरे टिमटिमा रहा था। रात का सन्नाटा बढ़ रहा। ऐसा प्रतीत होता था, अन्धकार से व्याप्त इस भूमण्डल पर केवल वह छोटा-सा घर ही आलोक की रेखा वखेर रहा है। और, नक्षत्र-लोक में केवल दो प्राणी ही जीवित है, मैं और वह। और, हम दोनों अटूट सुख-सागर मे डूब गए है।