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तिकड़म

रामनाथ ने कहा-"अब सुनोगे भी या अपनी ही बके जाओगे? पहिले दिन ब्याह हुआ, दूसरे दिन बढ़ार हुई, तीसरे दिन बिदा। बस उसी वक्त कयामत बर्पा हो गई।"

एक दोस्त ने कहा-"हम शर्त बाॅधते हैं, बस हज़रत की ऑखे लड़ गई-और चॉद पर......"

रामनाथ उठकर जाने लगे। दोस्तों ने मिन्नते करके कहा- "नाराज़ मत हो यार, सब सुना जाओ, यहाॅ दोस्त लोग हैं, जान पर खेल जायेगे। लो अब सुना दो कच्चा चिठ्ठा।"

रासनाथ ने फिर एक सॉस ली और कहना शुरू किया- "कोई दस बजे का समय था। बाजे बज रहे थे,दूल्हा-दुलहिन पलग पर बैठे थे, औरतों ने उन्हें घेर रखा था। कोई गा रही थी, कोई वकबाद कर रही थी। एक चकल्लस मची हुई थी। इतने में एक वाला पर मेरी बदनसीब नज़र पड़ गई।"

"वाह दोस्त, हमने क्या कहा था," एक बोल उठा। दोस्तों ने कहा-"ज़रूर वह सैकड़ों में एक ही होगी, फिर आपने कोई तीर-ऊर फेका?"

सैकड़ों मे ? म्यॉ, लाखों में।" रामनाथ ने जोश में आकर कहा। फिर कुर्ते की आरतीने चढ़ाई और सिगरेट निकाल कर जलाई। दोस्त लोग दम रोके बैठे थे। रामनाथ बोले "बस मैं देखता ही रह गया! वह ऑख, वह नाक, वह रंग, वह कद कि क्या कहूॅ, किससे कहूॅ, कैसे कहूॅ, क्यों कर कहूॅ, तुम सब गधे हो। समझोगे क्या?"

एक ने कहा-"ठीक कहते हो भई। हम गधे इन बातों को समझ ही नही सकते। लेकिन यार, झटपट यह कह दो- कुछ इशारा किया, शेर पढ़े बाते की, पुर्जा लिखा, किसी तरह अपने दिल का हाल-चाल भी उसे बताया, उसके दिल की भी जानी?"