पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४ आवारागर्द पर बैठे मजे से ऊँघ रहे हैं । मैने हँस कर कहा- 'वाह, आपने तो अच्छी खासी झपकी लेली।' सूबेदार भी हँसने लगे। हम लोग फिर बैठ कर गपशप उड़ाने लगे। उसी दिन पाँच बजे मुझे महलों में जाना था। एकाएक मुझे यह वात याद हो आई और मैने अभ्यास के अनु- सार मेज़ पर घड़ी को टटोला । तब यह बिल्लौर मेज़ मैने नहीं खरीदी थी, वह जो मेरी आफिस-टेबिल है, उसी पर - एक जगह यह घड़ी मेरी आँखों के सामने रक्खी रहती थी। परन्तु उस समय जो देखता हूँ तो घड़ी का कहीं पता न था। कलेजा धक से होगया । अपनी बेबकूफी पर पछताने लगा कि इतनी कीमती घड़ी ऐसी अरिक्षत जगह रक्खी ही क्यो ? मै तनिक व्यस्त होकर घड़ी को ढूंढने लगा , मेरी घड़ी कितनी बहुमूल्य है। यह तो आप जानते ही हैं । सूबेदार साहब भी घबड़ा गये, वे भी व्यस्त होकर मेरे साथ घड़ी ढूढ़ने मे लग गये। वीच मे भांति भांति के प्रश्न करते जाते थे। परन्तु यह निश्चय था कि थोड़ी ही देर पहिले जब मै बाहर गया था, घड़ी वहाँ रक्खीं थी। मैने उसे भली भांति अपनी आँखों से देखा था। पर यह बात मैं साफ साफ सूबेदार साहब से नहीं कह सकता था, क्यों कि वे तो तब से अब तक यही बैठे थे । कहीं वे यह न समझने लगे हमीं पर शक किया जा रहा है। खैर, घड़ी वहाँ न थीं, वह नहीं मिलनी थी और नहीं मिली । मे निराश होकर धम्म से सोफे पर बैठ गया पर ऐसी बहुमूल्य घड़ी गुसा देना और सब कर बैठना आसान न था। भांति भांति के कुलावे बांधने लगा। सूबेदार साहब भी पास आ वैठे और आश्चर्य तथा चिन्ता प्रकट करने लगे। उन्होंने पुलिस मे भी खबर करने की सलाह दीं, नौकर चाकरों की भी छान- -वीन की