पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/६१

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६० आवारागर्द रजनी ने आकर सिर से पैर तक दिलीप को देखकर कहा "कह नही सकती, दुलारी को बुलाती हूँ उसे शायद कुछ पता हो।" दिलीप ने नेत्रों मे भिक्षा याचना भरकर रजनी की ओर देखा। उसे देखकर रजनी का दिल पसीज गया। उसने आगे बढ़कर कहा "क्यों जाते हो दिलीप वाबू ।" दिलीप की आँखे भर आई। उन्होने झुककर रजनी के पैर छुए और कहा “जीजी, सम्भव हुआ तो मै फिर जल्द ही आऊँगा।" उन्होने घड़ी निकाली और राजेन्द्र से कहा “जरा एक तॉगा मॅगा दो।" राजेन्द्र ने कहा "तब जाओगे ही। वे तॉगे के लिये कहने बाहर चले गये। रजनी कुछ क्षण चुप खड़ी रही, फिर उसने कहा“ दिलीप बाबू , कहिये मुझसी कोई स्त्री दुनिया मे है या नहीं" दिलीप ने एक बार सिर से पैर तक रजनी को देखा, फिर उससे कहा “अब तुम मुझे चाहे मार हो डालो, पर रज्जी तुम सी एक भी औरत दुनिया मे न होगी।" इस बार फिर से 'तुम' और 'रज्जी' का घनिष्ट सम्बोधन 'पाकर रजनी की आँखों से टप टप दो बूद ऑसू गिर गये। वह जल्दी से वहाँ से घर के भीतर चली गई। तॉगा आ गया । सामान रख दिया । गृहिणी के पैर छूकर ज्योंही दिलीप बाबू ड्योढ़ी पर पहुंचे तो देखते क्या हैं कि रजनी टीके का सामान थाल मे धरे रास्ता रोके खड़ी है। दिलीप और राजेन्द्र रुक कर रजनी की ओर देखने लगे। रजनी के पास ही दुलरिया भी अपनी गहरी, लाल रङ्ग की टसरी साड़ी पहने खड़ी थी । उसके हाथ थाल देकर रजनी ने दिलीप के माथे पर रोरी- दही का टीका लगाया, चावल सिर पर बखेरे और दो तीन दाने