चिट्ठी की दोस्ती
मिस्टर लाल ने इसी उम्र में तमाम दुनिया खूँद मारी थी। इसी साल वे वैरिस्टर हो कर विलायत आये थे। घर के रईस, दिल के बादशाह, तबीयत के आज़ाद आदमी थे। तीन साल के लम्बे अर्से के बाद जो वे आये तो देखते ही तबीयत हरी हो गई। आते ही उन्होंने जो बातों का रङ्ग बाँधा, देश विदेश की आप बीती सुनानी शुरू की, एक से एक बढ़ कर बातें, कहाँ वे बेवकूफ बने, कहाँ ठगे गये, कहाँ तिकड़म भिड़ाई, कहाँ फँसे आदि जो बातें उन्होंने बयान कीं, तो सुनकर तबीयत फड़क गई। तीन-चार दिन चुटकी बजाते गुज़र गये। मिस्टर लाल का मेरे घर आना और मेरे साथ रहना मेरे लिये गनीमत था। आप तो जानते ही हैं कि मैं अकेला दुनियां भर की सब आशाओं से रहित ऐसा सूखा ठूंठ हूँ जिसका सारा रस सूख गया हो, सारे पत्ते झड़ गये हो, सारी शोभा लुट चुकी हो, न कोई मेरा दोस्त-मुलाकाती, न सगे न सम्बन्धी, दोस्त-मुलाकाती उसके होते हैं, जिससे लोगों के काम सरते हैं, मतलब निकलते हैं, मुझसे किसी का क्या काम सर सकता है। न किसी के लेने में; न देने में, इसलिये