मानो भूलने-सा लगा था कि जब हम मिलेगे, हमारा स्वप्न टूट जायगा। सम्भव हैं कि सूफ़िया मुझे घृणापूर्वक वञ्चक, ठग कह कर तिरस्कार कर दे, और मेरा सारा संसार अँधेरा हो जाय, आह! फिर मैं क्या जीवित रह सकूँगा? मुझे निश्चय अपने प्राण त्याग करने पड़ेंगे। परन्तु असल बात तो यह हैं कि मैं उसे मुँह नही दिखा सकता। उसके सन्मुख आने से प्रथम ही मरना होगा। दिन बीतते जाते थे और मेरे मन की विकलता बढ़ती जाती थी। एक दिन एकाएक तार मिला, सूफ़िया का था। वह दूसरे ही दिन बम्बई पहुँच रही थी, पढ़ कर पैरों तले से ज़मीन निकल गई। कुछ करते-धरते न बन पड़ा। संसार घूमता-सा नज़र आने लगा! अब क्या होगा? और कोई भी चारा न मैंने मिस्टर लाल को तार देकर तुरन्त बुलाया। वे आये, तार देख कर वे भी जरा चकराये; किन्तु अब तो एक ही मार्ग था कि मैं अपनी जगह मिस्टर लाल को दूँ। मैं सूफ़िया को लाल के हवाले कर दूँ और आप लोहू का घूट पीकर बैठ जाऊं या जान दे दूँ। परन्तु यह एक मात्र मार्ग भी निरापद न था। इतने लम्बे अर्से तक जो पत्र-व्यवहार हुआ है, परस्पर के हृदय का जो विनिमय हुआ है, हम दोनों जो एक दूसरे के इतने निकट आ गये हैं, इसका क्या होगा? क्या मिस्टर लाल मेरा सच्चा स्थान ग्रहण कर सकेंगे? इसकी कोई सम्भावना नहीं दीखती, परन्तु अब तो और कोई उपाय नहीं है, यह तो सम्भव ही नहीं हो सकता कि मै सूफ़िया पर अपना भेद खोल दूँ। अपना मनहूस चेहरा लेकर उसके सामने जा खड़ा होऊं। मैने सब बातें समझा-बुझा कर मिस्टर लाल को सूफ़िया के पास भेज दिया और कह दिया कि जैसे बने वैसे जल्द से जल्द उसे वापस भेज देना। मिलन-क्षण की प्रतीक्षा ही रही और बिदा की व्यवस्था हो गई। वाह! ऐसा प्रेम भी दुनिया में किसी ने न किया होगा!
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