उदय के मन में थीं। अमला को किसी भाँति की कोई तकलीफ न रहने पावे, इस संबंध में उदय खूब ही सचेष्ट थे।
विवाह के डेढ़ वर्ष बाद अमला ने एक पुत्री प्रसव की। कन्या अतीव सुँदरी, सुमुखी और आकर्षक थी। उसके जन्म से अमला और उदय दोनों ही बहुत प्रसन्न हुए। यह नन्ही सी बच्ची अपने छोटे-से दूध के समान स्वच्छ पालने पर पड़ी चुपचाप अंगूठा चूसती, छू देने से हँसती, और पास जाने पर निर्मल नेत्रों से देखती रहती। वह अपनी अज्ञात भाषा मे अपने पास आनेवालों से कुछ बातचीत भी किया करती। देखते-देखते वह बड़ी होने लगी।
नन्ही की पहली वर्ष-गाँठ का दिन था। उदय उन आदमियो मैं न थे, जो कन्या जन्म को पुत्र-जन्म से कम समझते हैं। उन्होंने बड़ी धूम-धाम से उसकी प्रथम वर्ष गाँठ मनाई। मित्रों और परिजनों से घर भर गया। भाँति-भाँति के भोजनों और मनोविनोद के सामानों से आगंतुकों का स्वागत किया गया। अपनी-अपनी भेट और बच्ची हो आशीर्वाद देकर जब मेहमान बिदा हो गए, तो उदय बहुत-सी सटर-पटर चींजे नन्ही के लिए खरीदकर, हँसते हुए, घर आए। उनकी आँखों में हँसी थी, और दिल में चुहल। अमला के नव-वधू होकर घर आने पर भी वह चुहल उदय के मन में नहीं उदय हुई थी। अमला उन उल्लासयुक्त आँखों को देखती ही रह गई। परन्तु उदय की दृष्टि अमला की ओर नहीं थी। वह नन्ही की ओर उत्साह से देख रहे थे। अकस्मात् नन्ही के सिरहाने रक्खी एक गुड़िया पर उनकी दृष्टि पड़ी। वह भौंचक-से उस गुड़िया की ओर एकटक कुछ देर देखते उस गुड़िया की ओर पागल की तरह ताकते देख अमला से न रहा गया। उसने पूछा—"इसे इस तरह क्यों तक रहे हो?"