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पृष्ठ:आवारागर्द.djvu/९२

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जापानी दासी

यह घटना सन् १९१७ की है। यूरोप का घनघोर महायुद्ध चल रहा था। सारे संसार पर लोहू और लोहे का रंग चढ़ा हुआ था। जर्मनी का आतंक मित्र-राष्ट्रों की नींद हराम किए था। उस समय जापान पर मित्र-राष्ट्रों के, खासकर अग्रेज़ों के, प्राण अटके थे। ग्रेट-ब्रिटेन, जो मित्र-राष्ट्रों का केन्द्र था, जापान की करुणाकोर का दीन भिखारी था। जापान के भ्रू-भंग होते ही एशिया से ब्रिटेन का नाम-निशान मिट सकता था।

जापान ने अपना महत्त्व समझ लिया था। जापान का टापू जैसा क्षुद्र और महासमुद्रों की जल राशि में मग्न एक नगण्य भूमि खंड है, वैसे हीं जापान के निवासी भी नाटे-ठिगने और पीत वर्ण होते हैं। वे इस समय लोहे के फौलादी आदमियों की भांति पृथ्वी-भर में अपने व्यापार साम्राज्य का विस्तार करने पर तुले थे। उनके चारों ओर चांदी थी। अमेरिका, योरोप, एशिया और अफ्रीका, सभी तरफ के कला-कौशल व्यापार भंग थे। यातायात आतंक पूर्ण था। समुद्रीय मार्ग में टारपीडो और विध्वसकों का जाल बिछा था। इस जाल को भेदन करके किसी भी शत्रु-मित्र