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पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१०७

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सत्रहवा परिच्छेद।

रमण―बतलाने का अधिकार नहीं है।

उपेन्द्र―उस की ससुरार किधर है?

रमण―यहां से उत्तर।

उपेन्द्र―उसका पति जीता है?

रमण―हां।

उपेन्द्र―आप उसे चीन्हते हैं?

रमण-हां, चीन्हता हूं।

उपन्द्र―वह (कुमुदिनी) इस समय कहाँ है?

रमण―आप के हप्पी घर में।

यह सुन मेरे प्राणप्यारे चिहुंक उठे और चरुपका कर बोले―“यह बात आप ने क्यों कर जानी?”

रमण―इस के बतानें का मुझे अधिकार नहीं है। अच्छा, अब आप की आपली जिर पूरी हुई?

उपेन्द्र―हां, पूरी हुई; किन्तु आप ने तो वह न पूछा―“तुम क्यों मुझसे इन बातों को पूछते हो!!!”

रमण―दो कारणों से यह बात मैं ने न पूछी। उन में एक तो यह कि मेरे पूछने से आप बतावेंगे नहीं। क्यों सच है कि नहीं?

उपेन्द्र―हां, यह भी सच है। अच्छा, दुसरा कारण कौन सा है?

रमण―वही कि जिस लिये आप ये सब बातें मुझसे पूछते हैं, उन का भेद मुझे मालूम है।