पृष्ठ:इन्दिरा.djvu/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०४
इन्दिरा

उपेन्द्र―ऐं! भी आप जानते हैं ? अच्छा, क्या जानते हैं? बतलाइये तो सही।

रमण―बतला नहीं सकते।

उपेन्द्र―अच्छा, मैं समझता हूं कि आप सब जानते हैं, किन्तु बतलाइये तो सही कि मैं जो अभिलाषा करता हूं वह पूरी होगी कि नहीं?

रमण―भलीभांति पूरी होगी। इस बारे में आप कुमुदिनी से पूछियेगा।

उपेन्द―एक बात और है,―वह यही कि आप कुमुदिनी के बारे में जो कुछ जानते हैं, वह सब एक कागज़ में लिखकर और उस पर अपना दस्तख़त कर के मुझे दे सकते हैं?

रमण―हां, दे सकते हैं,―किन्तु एक शर्त पर! मैं सब हाल लिख और उस पुलिदे पर सील मुहर कर के उसे कुमुदिनी के हाथ में दे आऊंगा। और आप सभी उसे पढ़ने न आवेंगे! अब आप अपने देश पर जाइयेगा, तब उस पुलिंदे को खोल कर पढियेंगा। कहिये, इस बात पर आप राज़ी हैं?

मेरे प्यारे ने थोड़ी देर तक कुछ सोच विचार करने पर कहा―“हां, राज़ी है, आप मेरे अभिप्राय की पोषकता तो उस से होगी न?”

रमण―हां, होगी।

फिर इधर उधर की बातें कर के रमण बाबू चले गये और उ० बाबू मेरे पास आये।